Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 963
________________ उत्तरखण्ड .श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसङ्ग. श्रीरघुनाथजीने भी इस लोकसे जानेका विचार किया। हाथोंमें कुश लिये अनासक्तभावसे · चले। उन्होंने अपने पुत्र वीरवर कुशको कुशावतीमें और लवको श्रीरामचन्द्रजीके दक्षिण भागमें कमल हाथमें लिये द्वारवतीमें धर्मपूर्वक अपने-अपने राज्यपर स्थापित श्रीदेवी उपस्थित हो गयीं और वामभागमें भूदेवी किया। उस समय भगवान् श्रीरामके अभिप्रायको साथ-साथ चलने लगीं। वेद, वेदाङ्ग, पुराण, इतिहास, जानकर समस्त वानर और महाबली राक्षस अयोध्यामें ॐकार, वषट्कार, लोकको पवित्र करनेवाली सावित्री आ गये। विभीषण, सुग्रीव, जाम्बवान्, पवनकुमार तथा धनुष आदि अस्त्र-शस्त्र-सभी पुरुष-विग्रह हनुमान्, नील, नल, सुषेण और निषादराज गुह भी आ धारण करके वहाँ उपस्थित हो गये। भरत, शत्रुघ्न तथा पहुंचे। महामना शत्रुघ्र भी अपने वीर पुत्रोंको राज्यपर समस्त पुरवासी भी अपनी स्त्री, पुत्र तथा सेवकोंसहित अभिषिक्त करके श्रीरामपालित अयोध्यानगरीमें आये। भगवान्के साथ-साथ चले। मन्त्री, भृत्यवर्ग, किङ्कर, वे सभी महात्मा श्रीरामको प्रणाम करके हाथ जोड़कर वैदिक, वानरगण, भालु तथा राजा सुग्रीव-इन सबने कहने लगे-'रघुश्रेष्ठ ! आप परमधाममें पधारनेको स्त्री और पुत्रोंके साथ परम बुद्धिमान् श्रीरघुनाथजीका उद्यत है—यह जानकर हम सब लोग आपके साथ अनुसरण किया। इतना ही नहीं, समीपवर्ती पशु, पक्षी चलनेको आये हैं। प्रभो ! आपके बिना हम क्षणभर भी तथा समस्त स्थावर-जङ्गम प्राणी भी महात्मा जीवित रहने में समर्थ नहीं हैं; अतः हम भी साथ ही रघुनाथजीके साथ गये। उस समय श्रीरामचन्द्रजीको जो चलेंगे।' उनके ऐसा कहनेपर श्रीरघुनाथजीने 'बहुत भी देख लेते, वे ही उनके साथ लग जाते थे। उनमेंसे अच्छा' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की। तत्पश्चात् कोई भी पीछे नहीं लौटता था। उन्होंने राक्षसराज विभीषणसे कहा-'तुम धर्मपूर्वक तदनन्तर अयोध्यासे तीन योजन दूर जाकर, जहाँ राज्यका पालन करो। मेरी प्रतिज्ञा व्यर्थ न होने दो। नदीका प्रवाह पच्छिमकी ओर था, भगवान्ने जबतक चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी कायम हैं, तबतक अनुयायियोंसहित पुण्यसलिला सरयूमें प्रवेश किया। प्रसत्रतापूर्वक राज्य भोगो। फिर योग्य समय आनेपर मेरे उस समय पितामह ब्रह्माजी सब देवताओं और परमपदको प्राप्त होओगे।' ऋषियोंके साथ आकर रघुनाथजीकी स्तुति करते हुए . ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजीने इक्ष्वाकुकुलके देवता बोले-'श्रीविष्णो ! आइये । आपका कल्याण हो । बड़े श्रीरङ्गशायी सनातन भगवान् विष्णुके अर्चाविग्रहको सौभाग्यकी बात है जो आप यहाँ पधारे हैं। मानद ! विभीषणके लिये समर्पित किया। इसके बाद शत्रुसूदन अब आप अपने देवोपम भाइयोंके साथ अपने वैष्णव श्रीरघुनाथजीने हनुमानजीसे कहा-'वानरेश्वर ! संसारमें स्वरूपमें प्रवेश कौजिये। वही आपका सनातन रूप है। जबतक मेरी कथाका प्रचार रहे, तबतक तुम इस देव ! आप ही सम्पूर्ण विश्वकी गति है। कोई भी आपके पृथ्वीपर सुखसे रहो। फिर समयानुसार मुझे प्राप्त स्वरूपको वास्तवमें नहीं जानते। आप अचिन्त्य, होओगे।' हनुमानजीसे ऐसा कहकर वे जाम्बवानसे महात्मा, अविनाशी और सबके आश्रय हैं। भगवन् ! बोले-'पुरुषश्रेष्ठ ! द्वापर युग आनेपर मैं पुनः पृथ्वीका आप आइये। उस समय भगवान् श्रीरामने अपने भार उतारनेके लिये यदुकुलमें अवतार लूंगा और तुम्हारे स्वरूपमें प्रवेश किया। भरत और शत्रुघ्न क्रमशः शङ्ख साथ युद्ध करूँगा। [अतः तुम यहीं रहो।' और चक्रके अंश थे। वे दोनों महात्मा दिव्य तेजसे उपर्युक्त व्यक्तियोंसे ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजीने सम्पन्न हो अपने तेजमें मिल गये। तब शङ्ख, चक्र, गदा अन्य सभी वानरों और भालुओंसे कहा-'तुम सब और पद्म धारण किये हुए चतुर्भुज भगवान् विष्णुके लोग मेरे साथ चलो।' तदनन्तर ब्रह्मचर्यका पालन रूपमें स्थित हो श्रीरामचन्द्रजी श्री और भू देवियोंके साथ करनेवाले भगवान् श्रीराम श्वेत वस्त्र पहनकर दोनों विमानपर आरूढ़ हुए। वहाँ दिव्य कल्पवृक्षके मूल

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