Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 962
________________ ९६२ अर्चयस्य इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • *********** ऐसा कहनेपर सती सीताने उनके प्रति अपना अनन्य प्रेम दिखलानेके लिये सब लोगोंको आश्चर्यमें डालनेवाला प्रमाण उपस्थित किया। ये हाथ जोड़कर सबके सामने उस भरी सभा में बोलीं- यदि मैं श्रीरघुनाथजीके सिवा अन्य किसी पुरुषका मनसे चिन्तन भी न करती होऊँ तो हे पृथ्वीदेवी! तुम मुझे अपने अङ्कमें स्थान दो। यदि मैं मन, वाणी और क्रियाद्वारा केवल श्रीरघुनाथजीकी हो पूजा करती होऊँ तो हे माता पृथिवी! तुम मुझे अपने अङ्कमें स्थान दो।' माता जानकीको परमधाममें चलनेके लिये उद्यत जान पक्षिराज गरुड़ अपनी पीठपर रत्नमय सिंहासन लिये रसातलसे प्रकट हुए। इसी समय पृथ्वीदेवी भी प्रत्यक्षरूपसे प्रकट हुई। उन्होंने मिथिलेशकुमारी सीताको दोनों हाथोंसे उठा लिया और स्वागतपूर्वक अभिनन्दन करके उन्हें सिंहासनपर बिठाया। सीता देवीको सिंहासनपर बैठी देख देवगण धारावाहिकरूपसे उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे तथा दिव्य अप्सराओंने उनका पूजन किया। फिर वे सनातनी देवी गरुड़पर आरूढ़ हो पृथ्वीके ही मार्गसे परम धामको चली गयीं। जगदीश्वरी सीता पूर्वभागमें दासीगणोंसे घिरकर योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य सनातन परम धाममें स्थित हुई। सीताको रसातलमें प्रवेश करते देख सब मनुष्य साधुवाद देते हुए उच्चस्वरसे कहने लगे — 'वास्तवमें ये सीतादेवी परम साध्वी हैं।' सीताके अन्तर्धान हो जानेसे श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा शोक हुआ। वे अपने दोनों पुत्रोंको लेकर मुनियों और राजाओंके साथ अयोध्यामें आये। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् उत्तम व्रतका पालन करनेवाली श्रीरामचन्द्रजीकी माताएँ कालधर्मको प्राप्त हो पतिके समीप स्वर्गलोकमें चली गयीं। कठोर व्रतका पालन करनेवाले श्रीरघुनाथजीने ग्यारह हजार वर्षोंतक धर्मपूर्वक राज्यका पालन किया। एक दिन काल तपस्वीका वेष धारण करके श्रीराम चन्द्रजीके भवनमें आया और इस प्रकार बोला'महाभाग श्रीराम ! मुझे ब्रह्माजीने भेजा है। रघुश्रेष्ठ ! मैं उनका सन्देश कहता हूँ, आप सुनें। मेरी और आपकी [ संक्षिप्त पद्मपुराण ***************** बातचीत हम ही दोनोंतक सीमित रहनी चाहिये; इस बीचमें जो यहाँ प्रवेश करे, वह वधके योग्य होगा।' ऐसा ही होगा, यह प्रतिज्ञा करके श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणको दरवाजेपर पहरा देनेके लिये बिठा दिया और स्वयं कालके साथ वार्तालाप करने लगे। उस समय कालने कहा- "श्रीराम ! मेरे आनेका जो कारण है, उसे आप सुने। देवताओंने आपसे कहा था कि 'आप रावण और कुम्भकर्णको मार ग्यारह हजार वर्षोंतक मनुष्यलोकमें निवास करें। उनके ऐसा कहनेपर आप इस भूतलपर अवतीर्ण हुए थे। वह समय अब पूरा हो गया है; अतः अब आप परमधामको पधारें, जिससे सब देवता आपसे सनाथ हों।" महाबाहु श्रीरामने 'एवमस्तु' कहकर कालका अनुरोध स्वीकार किया। - उन दोनोंमें अभी बातचीत हो ही रही थी कि महातपस्वी दुर्वासामुनि राजद्वारपर आ पहुँचे और लक्ष्मणसे बोले – 'राजकुमार ! तुम शीघ्र जाकर रघुनाथजीको मेरे आनेकी सूचना दो।' यह सुनकर लक्ष्मणने कहा – 'ब्रह्मन् ! इस समय महाराजके समीप जानेकी आज्ञा नहीं है। लक्ष्मणकी बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाको बड़ा क्रोध हुआ। वे बोले- 'यदि तुम श्रीरामचन्द्रजीसे नहीं मिलाओगे तो शाप दे दूँगा।' लक्ष्मणजीने शापके भयसे श्रीरामचन्द्रजीको महर्षि दुर्वासाके आगमन की सूचना दे दी। तब सब भूतोंको भय देनेवाले कालदेव वहीं अन्तर्धान हो गये। महाराज श्रीरामने दुर्वासाके आनेपर उनका विधिवत् पूजन किया। उधर रघुश्रेष्ठ लक्ष्मणने अपने बड़े भाईकी प्रतिज्ञाको याद करके सरयूके जलमें स्थित हो अपने साक्षात् स्वरूपमें प्रवेश किया। उस समय उनके मस्तकपर सहस्त्रों फन शोभा पाने लगे। उनके श्री अङ्गोंकी कान्ति कोटि चन्द्रमाओंके समान जान पड़ती थी। वे दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण किये दिव्य चन्दनके अनुलेपसे सुशोभित हो रहे थे। सहस्रों नाग कन्याओंसे घिरे हुए भगवान् अनन्त दिव्य विमानपर बैठकर परमधामको चले गये । लक्ष्मणके परमधामगमनका हाल जानकर

Loading...

Page Navigation
1 ... 960 961 962 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001