Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 955
________________ उत्तरखण्ड ] .श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्यामें आनेतकका प्रसङ्ग ९५५ श्रीरघुनाथजी चित्रकूट पर्वतपर भरद्वाज मुनिके उसकी रक्षा की। दयानिधि श्रीरघुनाथजीने कौएसे उत्तम आश्रमके निकट मन्दाकिनीके किनारे लक्ष्मीस्वरूपा कहा—'काक ! डरो मत, मैं तुम्हें अभयदान देता हूँ। विदेह राजकुमारी सीताके साथ रहने लगे। एक दिन अब तुम सुखपूर्वक अपने स्थानको जाओ।' तब वह महामना श्रीराम जानकीजीको गोदमें मस्तक रखकर सो कौआ श्रीराम और सीताको बारंबार प्रणाम करके रहे थे। इतनेहीमें इन्द्रका पुत्र जयन्त कौएके रूपमें वहाँ श्रीरघुनाथजीके द्वारा सुरक्षित हो शीघ्र ही स्वर्गलोकको आकर विचरने लगा। वह जानकोजीको देखकर उनकी चला गया। फिर श्रीरामचन्द्रजी सीता और लक्ष्मणके ओर झपटा और अपने तीखे पंजोंसे उसने उनके स्तनपर साथ महर्षियोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए चित्रकूट आघात किया। उस कौएको देखकर श्रीरामने एक कुश पर्वतपर रहने लगे। हाथमें लिया और उसे ब्रह्मास्त्रसे अभिमन्त्रित करके कुछ कालके पश्चात् एक दिन श्रीरघुनाथजी अत्रिउसकी ओर फेंका। वह तृण प्रज्वलित अग्निके समान मुनिके विशाल आश्रमपर गये। उन्हें आया देख मुनिश्रेष्ठ अत्यन्त भयङ्कर हो गया। उससे आगकी लपटें निकलने धर्मात्मा अत्रिने बड़ी प्रसन्नताके साथ आगे जाकर उनकी लगी। उसे अपनी ओर आता देख वह कौआ कातर अगवानी की और सीतासहित श्रीरामचन्द्रजीको सुन्दर स्वरमें कांव-काँव करता हुआ भाग चला। श्रीरामका आसनपर विराजमान करके उन्हें प्रेमपूर्वक अर्घ्य, पाद्य, छोड़ा हुआ वह भयङ्कर अस्त्र कौएका पीछा करने लगा। आचमनीय, भाँति-भाँतिके वस्त्र, मधुपर्क और आभूषण कौआ भयसे पीड़ित हो तीनों लोकोंमें घूमता फिरा । वह आदि समर्पण किये। मुनिकी पत्नी अनसूया देवीने भी जहाँ-जहाँ शरण लेनेके लिये जाता, वहीं-वहीं वह प्रसत्रतापूर्वक सीताको परम उत्तम दिव्य वस्त्र और भयानक अस्त्र तुरंत पहुँच जाता था । उस कौएको देखकर चमकीले आभूषण भेंट किये। फिर दिव्य अन्न, पान रुद्र आदि समस्त देवता, दानव और मनीषी मुनि यही और भक्ष्य-भोज्य आदिके द्वारा मुनिने तीनोंको भोजन उत्तर देते थे कि 'हमलोग तुम्हारी रक्षा करने में असमर्थ कराया। मुनिके द्वारा पराभक्तिसे पूजित होकर हैं।' इसी समय तीनों लोकोंके स्वामी भगवान् ब्रह्माने लक्ष्मणसहित श्रीराम वहाँ बड़ी प्रसन्नताके साथ एक कहा-'कौआ ! तू भगवान् श्रीरामकी ही शरणमें जा। दिन रहे। सबेरै उठकर उन्होंने महामुनिसे विदा माँगी वे करुणाके सागर और सबके रक्षक हैं। उनमें क्षमा और उन्हें प्रणाम करके वे जानेको तैयार हुए। मुनिने करनेकी शक्ति है । वे बड़े ही दयालु हैं। शरणमें आये हुए आज्ञा दे दी। तब कमलनयन श्रीराम महर्षियोंसे भरे हुए जीवोकी रक्षा करते हैं। वे ही समस्त प्राणियोंके ईश्वर हैं। दण्डक वनमें गये। वहाँ अत्यन्त भयंकर विराध नामक सुशीलता आदि गुणोंसे सम्पत्र है और समस्त राक्षस निवास करता था। उसे मारकर वे शरभङ्ग मुनिके जीवसमुदायके रक्षक, पिता, माता, सखा और सुहृद् हैं। उत्तम आश्रमपर गये। शरभङ्गने श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन उन देवेश्वर श्रीरघुनाथजीकी ही शरणमें जा, उनके सिवा किया। इससे तत्काल पापमुक्त होकर वे ब्रह्मलोकको और कहीं भी तेरे लिये शरण नहीं है।' चले गये। तत्पश्चात् श्रीरघुनाथजी क्रमशः सुतीक्ष्ण, ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर वह कौआ भयसे व्याकुल अगस्त्य तथा अगस्त्यके भाईके आश्रमपर गये। उन हो सहसा श्रीरघुनाथजीकी शरणमें आकर पृथ्वीपर गिर सबने उनका भलीभाँति सत्कार किया। इसके बाद वे पड़ा । कौएको प्राणसङ्कटमें पड़ा देख जानकीजीने बड़ी गोदावरीके उत्तम तटपर जा पञ्चवटीमें रहने लगे। वहाँ विनयके साथ अपने स्वामीसे कहा-'नाथ ! इसे उन्होंने दीर्घकालतक बड़े सुखसे निवास किया। धर्मका बचाइये, बचाइये।' कौआ सामने धरतीपर पड़ा था। अनुष्ठान करनेवाले तपस्वी मुनिवर वहाँ जाकर अपने सीताने उसके मस्तकको भगवान् श्रीरामके चरणोंमें लगा स्वामी राजीवलोचन श्रीरामका पूजन किया करते थे। उन दिया। तब करणारूपी अमृतके सागर भगवान् श्रीरामने मुनियोंने राक्षसोंसे प्राप्त होनेवाले अपने भयकी भी कौएको अपने हाथसे उठाया और दयासे द्रवित होकर भगवानको सूचना दी। भगवान्ने उन्हें सान्त्वना देकर संप पु-३२

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