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अर्थयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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मेरे लिये उसका सहन करना असम्भव है; इसलिये उदार रघुवंशी वीर! तुम मुझे युद्धका अवसर दो। सुना है, तुमने शङ्करजीके दुर्धर्ष धनुषको तोड़ डाला है। यह वैष्णव धनुष भी उसीके समान शत्रुओंका संहार करनेवाला है। तुम अपने पराक्रमसे इसकी प्रत्यचा चढ़ा दो तो मैं तुमसे हार मान लूँगा अथवा यदि मुझे देखकर तुम्हारे मनमें भय समा गया हो तो मुझ बलवान्के आगे अपने हथियार नीचे डाल दो और मेरी शरणमें आ जाओ।'
परशुरामजीके ऐसा कहनेपर परम प्रतापी श्रीरामचन्द्रजीने वह धनुष ले लिया। साथ ही उनसे अपनी वैष्णवी शक्तिको भी खींच लिया। शक्तिसे वियोग होते ही पराक्रमी परशुराम कर्मभ्रष्ट ब्राह्मणकी भाँति वीर्य और तेजसे हीन हो गये। उन्हें तेजोहीन देखकर समस्त क्षत्रिय साधु-साधु कहते हुए बारम्बार श्रीरामचन्द्रजीकी सराहना करने लगे। रघुनाथजीने उस महान् धनुषको हाथमें लेकर अनायास ही उसकी प्रत्यचा चढ़ा दी और बाणका सन्धान करके विस्मयमें पड़े हुए परशुरामजी से पूछा - 'ब्रह्मन् ! इस श्रेष्ठ बाणसे आपका
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
कौन-सा कार्य करूँ ? आपके दोनों लोकोंका नाश कर दूँ या आपके पुण्योंद्वारा उपार्जित स्वर्गलोकका ही अन्त कर डालूँ ?'
उस भयङ्कर बाणको देखकर परशुरामजीको यह मालूम हो गया कि ये साक्षात् परमात्मा है। ऐसा जानकर उन्हें बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने लोकरक्षक श्रीरघुनाथजीको नमस्कार करके अपने सौ यशोद्वारा उपार्जित स्वर्गलोक और अपने अस्त्र-शस्त्र उनकी सेवामें समर्पित कर दिये। तब महातेजस्वी रघुनाथजीने महामुनि परशुरामजीको प्रणाम किया तथा पाद्य, अर्घ्य और आचमनीय आदिके द्वारा उनकी विधिपूर्वक पूजा की। श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा पूजित होकर महातपस्वी परशुरामजी भगवान् नर-नारायणके रमणीय आश्रम में तपस्या करनेके लिये चले गये। तत्पश्चात् महाराज दशरथने पुत्रों और बहुओंके साथ उत्तम मुहूर्तमें अपनी पुरी अयोध्याके भीतर प्रवेश किया। श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्र चारों भाई अपनी-अपनी पत्नीके साथ प्रसन्नचित्त होकर रहने लगे। धर्मात्मा श्रीरघुनाथजीने सीताके साथ बारह वर्षोंतक विहार किया । ⭑ श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्यामें आनेतकका प्रसङ्ग
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श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती ! इसी समय उस समय मन्त्रियोंने भरतको राज्यपर बिठानेकी चेष्टा
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राजा दशरथने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामको प्रेमवश युवराज- पदपर अभिषिक्त करना चाहा; किन्तु उनकी छोटी रानी कैकेयीने, जिसे पहले वरदान दिया जा चुका था, महाराजसे दो वर माँगे — भरतका राज्याभिषेक और रामका चौदह वर्षोंके लिये वनवास राजा दशरथने सत्य वचनमें बँधे होनेके कारण अपने पुत्र श्रीरामको राज्यसे निर्वासित कर दिया। उस समय राजा मारे दुःखके अचेत हो गये तथा रामचन्द्रजीने पिताके वचनोंकी रक्षा करनेके लिये धर्म समझकर राज्यको त्याग दिया और लक्ष्मण तथा सीताके साथ वे वनको चले गये। वहाँ जानेका उद्देश्य था रावणका वध करना । इधर राजा दशरथ पुत्रवियोगसे शोकग्रस्त हो मर गये।
की, किन्तु धर्मात्मा भरतने राज्य लेनेसे इनकार कर दिया। उन्होंने उत्तम भ्रातृ-प्रेमका परिचय देते हुए वनमें आकर श्रीरामसे राज्य ग्रहण करनेके लिये प्रार्थना की; किन्तु पिताकी आज्ञाका पालन करनेके कारण रघुनाथजीने राज्य लेनेकी इच्छा नहीं की। उन्होंने भरतके अनुरोध करनेपर उन्हें अपनी चरणपादुकाएँ दे दीं। भरतने भी भक्तिपूर्वक उन्हें स्वीकार किया और उन पादुकाओंको ही राजसिंहासनपर स्थापित करके गन्धपुष्प आदिसे वे प्रतिदिन उनका पूजन करने लगे। महात्मा रघुनाथजीके लौटनेतकके लिये भरतजी तपस्या करते हुए वहाँ रहने लगे तथा समस्त पुरवासी भी तबतकके लिये भाँति-भाँति के व्रतोंका पालन करने लगे ।