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९५६ • अवयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण ....................... . .. .... ...................... अभयकी दक्षिणा दी। श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा सत्कार वह राक्षसी भयभीत हो रोती हुई शीघ्र ही खर नामक पाकर सब मुनि अपने-अपने आश्रममें चले आये। निशाचरके घर गयी और वहाँ उसने श्रीरामकी सारी पशवटीमें रहते हुए श्रीरामके तेरह वर्ष व्यतीत हो गये। करतूत कह सुनायी। यह सुनकर खर कई हजार राक्षसों
एक समय भयंकर रूप धारण करनेवाली दुर्घर्ष और दूषण तथा त्रिशिराको साथ ले शत्रुसूदन राक्षसी शूर्पणखाने, जो रावणकी बहिन थी, पञ्चवटीमें श्रीरामचन्द्रजीसे युद्ध करनेके लिये आया; किन्तु प्रवेश किया। वहाँ कोटि कन्दर्पके समान मनोहर श्रीरामने उस भयानक वनमें काल और अन्तकके समान कान्तिवाले श्रीरघुनाथजीको देखकर वह राक्षसी प्राणान्तकारी बाणोंद्वारा उन विशालकाय राक्षसोंका कामदेवके बाणसे पीड़ित हो गयी और उनके पास अनायास ही संहार कर डाला। विषैले साँपोंके समान जाकर बोली-'तुम कौन हो, जो इस दण्डकारण्यके तीखे सायकोंद्वारा उन्होंने युद्धमें खर, त्रिशिरा और भीतर तपस्वीके वेषमे रहते हो? तपस्वियोंके लिये तो महाबली दूषणको भी मार गिराया। इस प्रकार इस वनमें आना बहुत ही कठिन है। तुम किसलिये यहाँ दण्डकारण्यवासी समस्त राक्षसोंका वध करके आये हो? ये सब बाते शीघ्र ही सच-सच बताओ। श्रीरामचन्द्रजी देवताओद्वारा पूजित हुए और महर्षि भी झूठ न बोलना?' उसके इस प्रकार पूछनेपर श्रीराम- उनकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात् भगवान् श्रीराम सीता चन्द्रजीने हैसकर कहा-'मैं राजा दशरथका पुत्र हूँ। और लक्ष्मणके साथ दण्डकारण्यमें रहने लगे। मेरा नाम राम है। वे मेरे छोटे भाई धनुर्धर लक्ष्मण है। शूर्पणखासे राक्षसोंके मारे जानेका समाचार सुनकर ये मेरी पत्नी सीता हैं। इन्हें मिथिलानरेश जनककी प्यारी रावण क्रोधसे मूर्छित हो उठा और दुरात्मा मारीचको पुत्री समझो। मैं पिताके आदेशका पालन करनेके लिये साथ लेकर जनस्थानमें आया। पञ्चवटीमें पहुंचकर इस वनमें आया हूँ। हम तीनों महर्षियोंका हित करनेकी दशशीश रावणने मारोचको मायामय मृगके रूप में रामके इच्छासे इस महान् वनमें विचरते हैं। सुन्दरी ! तुम आश्रमपर भेजा। वह राक्षस अपने पीछे आते हुए दोनों मेरे आश्रमपर किसलिये आयी हो? तुम कौन हो दशरथकुमारोंको आश्रमसे दूर हटा ले गया। इसी बीचमें
और किसके कुलमे उत्पन्न हुई हो? ये सारी बातें रावणने अपने वधकी इच्छासे श्रीरामचन्द्रजीकी पत्नी सच-सच बताओ।'
सीताजीको हर लिया। राक्षसी बोली-मैं मुनिवर विश्रवाकी पुत्री और सीताजीको हरौ जाती हुई देख गधोंके राजा रावणकी बहिन हूँ। मेरा नाम शूर्पणखा है। मैं तीनों महाबली जटायुने श्रीरामचन्द्रजीके प्रति स्नेह होनेके लोकोंमें विख्यात हूँ। मेरे भाईन यह दण्डकारण्य मुझे दे कारण उस राक्षसके साथ युद्ध किया। किन्तु शत्रुविजयी दिया है। मैं इस महान् वनमें ऋषि-महर्षियोंको खाती हुई रावणने अपने बाहुबलसे जटायुको मार गिराया और विचरती रहती हूँ। तुम एक श्रेष्ठ राजा जान पड़ते हो। राक्षसोंसे घिरी हुई लङ्कापुरीमें प्रवेश किया। वहाँ तुम्हें देखकर मैं कामदेवके बाणोंसे पीड़ित हो रही हूँ और अशोकवाटिकामें सीताको रखा और श्रीरामचन्द्रजीके तुम्हारे साथ बेखटके रमण करनेके लिये यहाँ आयी हूँ। बाणोंसे मृत्युकी अभिलाषा रखकर वह अपने महलमें नृपश्रेष्ठ ! तुम मेरे पति हो जाओ। मैं तुम्हारी इस सती चला गया। इधर श्रीरामचन्द्रजी मृगरूपधारी मारीच सीताको अभी खा जाऊँगी।
नामक राक्षसको मारकर भाई लक्ष्मणके साथ जब पुनः ऐसा कहकर वह राक्षसी सीताको खा जानेके लिये आश्रममें आये, तब उन्हें सीता नहीं दिखायी दी। उद्यत हुई। यह देख श्रीरामचन्द्रजीने तलवार उठाकर सीताको कोई राक्षस हर ले गया, यह जानकर उसके नाक-कान काट लिये।* तब विकराल मुखवाली दशरथनन्दन श्रीरामको बहुत शोक हुआ और वे सन्तप्त
* इत्युक्त्वा राक्षसी सीतां ग्रसितुं वीक्ष्य चोद्यताम् । श्रीरामः खड्गमुद्यम्य नासाकों प्रचिच्छिदे । (२६९ । २४४)