Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 959
________________ उत्तरखण्ड] • श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्यामें आनेतकका प्रसङ्ग • . . . . . . . . . .. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .. . . . . . . .. . . . . . . . . पृथ्वी रहेगी तथा जबतक यहाँ मेरी कथाका प्रचार रहेगा, बिना विलम्ब किये ग्रहण कीजिये।' अग्निदेवके इस तबतक तुम्हारा राज्य कायम रहेगा। महाबल ! यहाँ कथनसे रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामने प्रसन्नताके साथ सीताको राज्य करके तुम पुनः अपने पुत्र, पौत्र तथा गणोंके साथ स्वीकार किया। फिर सब देवता भगवान्का पूजन करने योगियोंको प्राप्त होने योग्य मेरे सनातन दिव्य धाममें लगे। उस युद्धमें जो-जो श्रेष्ठ वानर राक्षसोंके हाथसे पहुँच जाओगे। मारे गये थे, वे ब्रह्माजीके वरसे शीघ्र ही जी उठे। ___ इस प्रकार विभीषणको वरदान दे महाबली तत्पश्चात् राक्षसराज विभीषणने सूर्यके समान तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजोने मिथिलेशकुमारी सीताको पास पुष्पकविमानको, जिसे रावणने कुवेरसे छीन लिया था, बुलवाया। यद्यपि वे सर्वथा पवित्र थीं, तो भी श्रीरामने श्रीरघुनाथजीको भेट किया। साथ ही बहुत-से वस्त्र और भरी सभामें उनके प्रति बहुत-से निन्दित वचन कहे। आभूषण भी दिये। विभीषणसे पूजित होकर परम प्रतापी पतिके द्वारा निन्दित होनेपर सती-साध्वी सीता अग्नि श्रीरामचन्द्रजी अपनी धर्मपत्नी विदेहकुमारी सीताके साथ प्रज्वलित करके उसमें प्रवेश करने लगी। माता उस श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ हुए । इसके बाद शूरवीर भाई जानकीको अग्निमें प्रवेश करते देख शिव और ब्रह्मा लक्ष्मण, वानर और भालुओंके समुदायसहित वानरराज आदि सभी देवता भयसे व्याकुल हो उठे और सुग्रीव तथा महाबली राक्षसोंसहित शूरवीर विभीषण भी श्रीरघुनाथजीके पास आ हाथ जोड़कर बोले-'महाबाहु. उसपर सवार हुए। वानर, भालू और राक्षस-सबके श्रीराम ! आप अत्यन्त पराक्रमी हैं। हमारी बात सुनें। साथ सवार हो श्रीरामचन्द्रजी श्रेष्ठ देवताओंके द्वारा सीताजी अत्यन्त निर्मल हैं, साध्वी हैं और कभी भी अपनी स्तुति सुनते हुए अयोध्याकी ओर प्रस्थित हुए। आपसे विलग होनेवाली नहीं हैं। जैसे सूर्य अपनी भरद्वाज मुनिके आश्रमपर जाकर सत्यपराक्रमी श्रीरामने प्रभाको नहीं छोड़ सकते, उसी प्रकार आपके द्वारा भी हनुमान्जीको भरतके पास भेजा। वे निषादोंके गाँव ये त्यागने योग्य नहीं हैं। ये सम्पूर्ण जगत्को माता और (शृङ्गवेरपुर) में जाकर श्रीविष्णु भक्त गुहसे मिले और सबको आश्रय देनेवाली हैं; संसारका कल्याण करनेके उनसे श्रीरामचन्द्रजीके आनेका समाचार कहकर लिये ही ये भूतलपर प्रकट हुई हैं। रावण और कुम्भकर्ण नन्दिग्रामको चले गये। वहाँ श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई पहले आपके ही भक्त थे, वे सनकादिकोंके शापसे इस भरतसे मिलकर उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीके शुभागमनका पृथ्वीपर उत्पन्न हुए थे। उन्हींकी मुक्तिके लिये ये समाचार कह सुनाया। हनुमान्जीके द्वारा श्रीरघुनाथजीके विदेहराजकुमारी दण्डकारण्यमें हरी गयौं। इन्हींको शुभागमनकी बात सुनकर भाई तथा सुहृदोंके साथ निमित्त बनाकर वे दोनों श्रेष्ठ राक्षस आपके हाथसे मारे भरतजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वायुनन्दन हनुमानजी गये हैं। अब इस राक्षसयोनिसे मुक्त होकर पुत्र, पौत्रों पुनः श्रीरामचन्द्रजीके पास लौट आये और भरतका और सेवकोंसहित स्वर्गमें गये हैं। अतः सदा शुद्ध समाचार उनसे कह सुनाया। आचरणवाली सती-साध्वी सौताको शीघ्र ही ग्रहण तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजीने अपने छोटे भाई लक्ष्मण कौजिये। ठीक उसी तरह जैसे पूर्वकालमें आपने समुद्रसे और सीताके साथ तपस्वी भरद्वाज मुनिको प्रणाम किया। निकलनेपर लक्ष्मीरूपमें इन्हें ग्रहण किया था। फिर मुनिने भी पकवान, फल, मूल, वस्त्र और आभूषण इसी समय लोकसाक्षी अग्रिदेव सीताको लेकर आदिके द्वारा भाईसहित श्रीरामका स्वागत-सत्कार प्रकट हुए। उन्होंने देवताओंके समीप ही श्रीजानकोजीको किया। उनसे सम्मानित होकर श्रीरघुनाथजीने उन्हें श्रीरामजीको सेवामें अर्पण कर दिया और कहा- प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले पुनः लक्ष्मणसहित 'प्रभो ! सीता सर्वथा निष्कलङ्क और शुद्ध आचरणवाली पुष्पकविमानपर आरूढ़ हो सुहृदोसहित नन्दिग्राममें हैं। यह बात मैं सत्य-सत्य निवेदन करता हूँ। आप इन्हें आये। उस समय कैकेयीनन्दन भरतने भाई शत्रुघ्न,

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