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उत्तरखण्ड
.वामन-अवतारके वैधतका वर्णन .
धर्मपूर्वक राज्य करने लगे। वह उत्तम राज्य उन्हें प्रतिदिन इस प्रह्लाद-चरित्रको सुनते हैं, वे सब पापोंसे भगवान्के प्रसादसे ही उपलब्ध हुआ था। उन्होंने अनेक मुक्त हो परम गतिको प्राप्त होते हैं। पार्वती ! इस प्रकार यज्ञ-दान आदिके द्वारा नरसिंहजीका पूजन किया और मैंने तुम्हें श्रीहरिके नृसिंहावतारका वैभव बतलाया है। समय आनेपर वे श्रीहरिके सनातन धामको प्राप्त हुए। जो अंब शेष अवतारोंके वैभवका क्रमशः वर्णन सुनो।
वामन अवतारके वैभवका वर्णन
श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! प्रह्लादके उन्होंने अदितिके साथ प्रणाम करके भगवान्की विरोचन नामक पुत्र हुआ। विरोचनसे महाबाहु बलिका स्तुति की। जन्म हुआ। बलि धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, तब भगवान् बोले-विप्रवर ! तुम्हारा कल्याण नित्य धर्मपरायण, पवित्र और श्रीहरिके प्रियतम भक्त हो। तुमने भक्तिपूर्वक मेरी पूजा की है। इससे मैं थे। वे महान् बलवान् थे। उन्होंने इन्द्रसहित सम्पूर्ण बहुत सन्तुष्ट हूँ। तुम कोई वर माँगो। मैं तुम्हारा मनोरथ देवताओं और मरुद्रणोंको जीतकर तीनों लोकोंको अपने पूर्ण करूंगा। अधीन कर लिया था। इस प्रकार वे समस्त त्रिलोकीका कश्यपजीने कहा-देवेश्वर ! दैत्यराज बलिने राज्य करते थे। उनके शासन-कालमें पृथ्वी बिना जोते तीनों लोकोंको बलपूर्वक जीत लिया है। आप मेरे पुत्र ही पके धान पैदा करती थी और खेतीमें बहुत अधिक होकर देवताओंका हित कीजिये। जिस किसी उपायसे अन्नकी उपज होती थी। सभी गौएँ पूरा दूध देती और भी मायापूर्वक बलिको परास्त करके मेरे पुत्र इन्द्रको सम्पूर्ण वृक्ष फल-फूलोंसे लदे रहते थे। सब मनुष्य त्रिलोकीका राज्य प्रदान कीजिये। पापोंसे दूर हो अपने-अपने धर्ममें लगे रहते, थे। कश्यपजीके ऐसा कहनेपर भगवान् विष्णुने किसीको किसी प्रकारको चिन्ता नहीं थी। सब लोग सदा 'तथास्तु' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की और भगवान् हषीकेशकी पूजा किया करते थे। इस प्रकार देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे वहीं दैत्यराज बलि धर्मपूर्वक राज्यका पालन करने लगे। इन्द्र अन्तर्धान हो गये। इसी समय महात्मा कश्यपके आदि देवता दासभावसे उनकी सेवामें खड़े रहते थे। संयोगसे देवी अदितिके गर्भमें भूतभावन भगवानका बलिको अपने बलका अभिमान था। वे तीनों लोकोंका शुभागमन हुआ। तदनन्तर एक हजार वर्ष बीतनेके बाद ऐश्वर्य भोग रहे थे।
अदितिने वामनरूपधारी भगवान् विष्णुको जन्म दिया। - इधर महर्षि कश्यप अपने पुत्र इन्द्रको राज्यसे वे ब्रह्मचारीका वेष धारण किये हुए थे। सम्पूर्ण वेदाङ्गोंमें वञ्चित देख उनके हितकी इच्छासे श्रीहरिको प्रसत्र उन्हींका तत्त्व दृष्टिगोचर होता है। वे मेखला, मृगचर्म करनेके लिये पत्नीसहित तपस्या करने लगे। धर्मात्मा और दण्ड आदि चिह्नोंसे उपलक्षित हो रहे थे। इन्द्र कश्यपने अपनी भार्या अदितिके साथ पयोव्रतका आदि सम्पूर्ण देवता उनका दर्शन करके महर्षियोंके साथ अनुष्ठान किया और उसमें देवताओंके स्वामी भगवान् उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान्ने प्रसन्न होकर उन जनार्दनका पूजन किया। उसके बाद भी एक सहल श्रेष्ठ देवताओंसे कहा-'देवगण ! बताइये, इस समय वर्षातक वे श्रीहरिकी आराधनामें संलग्न रहे। तब मुझे क्या करना है?' सनातन देवता भगवान् विष्णु भगवती लक्ष्मीकै साथ देवता बोले-मधुसूदन ! इस समय राजा उनके सामने प्रकट हुए। जगदीश्वर श्रीहरिको सामने देख बलिका यज्ञ हो रहा है। अतः ऐसे अवसरपर वह कुछ द्विजश्रेष्ठ कश्यपका हृदय आनन्दमें मग्न हो गया। देनेसे इन्कार नहीं कर सकता। प्रभो ! आप दैत्यराजसे