________________
९२६
. अयस्त हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त परापुराण
.
.
.
.
.
.
.
करनेवाला और स्पृश्य, ध्याता और ध्येय, वक्ता और समस्त हव्य-कव्योंका भोग लगाते हैं। वे ही इस लोकमें वाच्य तथा ज्ञाता और ज्ञेय-जो कुछ भी जड़-चेतनमय अविनाशी श्रीहरि एवं ईश्वर कहलाते है। उनके निकट जगत् है, वह सब लक्ष्मीपति श्रीहरि हैं, जिन्हें नारायण आनेसे समस्त राक्षस, असुर और भूत तत्काल भाग कहा गया है। वे सहसों मस्तकवाले, अन्तर्यामी पुरुष, जाते हैं। जो विराटप धारण करके अपनी विभूतिसे सहस्रों नेत्रोंसे युक्त तथा सहस्रों चरणोंवाले हैं। भूत और तीनों लोकोंको तृप्त करते हैं, वे पापको हरनेवाले वर्तमान-सब कुछ नारायण श्रीहरि ही है। अन्नसे श्रीजनार्दन ही परमेश्वर हैं। जब पुरुषरूपी हविके द्वारा जिसकी उत्पत्ति होती है, उस प्राणिसमुदाय तथा देवताओंने यज्ञ किया, तब उस यज्ञसे नीचे-ऊपर दोनों अमृतत्व-मोक्षके भी स्वामी वे ही हैं। वे ही विराट् ओर दाँत रखनेवाले जीव उत्पत्र हुए। सबको होमनेवाले पुरुष हैं। वे अन्तर्यामी पुरुष ही श्रीविष्णु, वासुदेव, उस यज्ञसे ही ऋग्वेद और सामवेदकी उत्पत्ति हुई। अच्युत, हरि, हिरण्मय, भगवान्, अमृत, शाश्वत तथा उसीसे घोड़े, गौ और पुरुष आदि उत्पन्न हुए। उस शिव आदि नामोंसे पुकारे जाते हैं। वे ही सम्पूर्ण जगत्के सर्वयज्ञमय पुरुष श्रीहरिके शरीरसे स्थावर-जङ्गमरूप पालक और सब लोकोंपर शासन करनेवाले ईश्वर है। वे समस्त जगत्की उत्पत्ति हुई। उनके मुख, बाह, ऊरु और हिरण्मय अण्डको उत्पन्न करनेके कारण हिरण्यगर्भ और चरणोंसे क्रमशः ब्राह्मण आदि वर्ण उत्पन्न हुए। सबको जन्म देनेके कारण सविता है। उनकी महिमाका भगवान्के पैरोंसे पृथ्वी और मस्तकसे आकाशका अन्त नहीं है, इसलिये वे अनन्त कहलाते हैं। वे महान् प्रादुर्भाव हुआ। उनके मनसे चन्द्रमा, नेत्रोंसे सूर्य, मुखसे ऐश्वर्यसे सम्पन्न होनेके कारण महेश्वर हैं। उन्हींका नाम अग्नि, सिरसे धुलोक, प्राणसे सदा चलनेवाले वायु, भगवान् (षविध ऐश्वर्यसे युक्त) और पुरुष है। नाभिसे आकाश तथा सम्पूर्ण चराचर जगत्की उत्पत्ति 'वासुदेव' शब्द बिना किसी उपाधिके सर्वात्माका बोधक हुई। सब कुछ श्रीविष्णुसे ही प्रकट हुआ है, इसलिये वे है। उन्हींको ईश्वर, भगवान् विष्णु, परमात्मा, संसारके सर्वव्यापी नारायण सर्वमय कहलाते हैं। इस प्रकार सुहृद्, चराचर प्राणियोंके एकमात्र शासक और सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करके श्रीहरि पुनः उसका संहार यतियोंकी परमगति कहते हैं। जिन्हें वेदके आदिमें स्वर करते हैं-ठीक उसी तरह, जैसे मकड़ी अपनेसे प्रकट कहा गया है, जो वेदान्तमें भी प्रतिष्ठित हैं तथा जो हुए तत्तुओंको पुनः अपने में ही लीन कर लेती है। ब्रह्मा, प्रकृतिलीन पुरुषसे भी परे हैं, वे ही महेश्वर कहलाते हैं। इन्द्र, रुद्र, वरुण और यम-सभी देवताओंको अपने प्रणवका जो अकार है, वह श्रीविष्णु ही हैं और जो विष्णु वशमें करके उनका संहार करते हैं; इसलिये भगवान्को हैं, वे ही नारायण हरि हैं। उन्हींको नित्यपुरुष, परमात्मा हरि कहा जाता है। जब सारा जगत् प्रलयके समय
और महेश्वर कहते हैं। मुनियोंने उन्हें ही ईश्वर नाम दिया एकार्णवमें निमग्न हो जाता है, उस समय वे सनातन है। इसलिये भगवान् वासुदेवमें उपाधिशून्य 'ईश्वर' पुरुष श्रीहरि संसारको अपने उदरमें स्थापित करके स्वयं शब्दको प्रतिष्ठा है। सनातन वेदवादियोंने उन्हें आत्पेश्वर मायामय वटवृक्षके पत्रपर शयन करते हैं। कल्पके कहा है। इसलिये वासुदेवमें महेश्वरत्वको भी प्रतिष्ठा है। आरम्भमें एकमात्र सर्वव्यापी एवं अविनाशी भगवान् वे त्रिपाद् विभूति तथा लीलाके भी अधीश्वर है । जो श्री, नारायण ही थे। उस समय न ब्रह्मा थे, न रुद्र । न देवता भू तथा लीला देवीके स्वामी हैं, उन्हींको अच्युत कहा थे, न महर्षि । ये पृथ्वी, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, गया है। इसलिये वासुदेवमें सर्वेश्वर शब्दकी भी प्रतिष्ठा लोक तथा महत्तत्त्वसे आवृत ब्रह्माण्ड भी नहीं थे। है। जो यज्ञके ईश्वर, यज्ञस्वरूप, यज्ञके भोक्ता, यज्ञ श्रीहरिने समस्त जगत्का संहार करके सृष्टिकालमें पुनः करनेवाले, विभु, यज्ञरक्षक और यज्ञपुरुष हैं, वे भगवान् उसकी सृष्टि की; इसलिये उन्हें नारायण कहा गया है। ही परमेश्वर कहलाते हैं। वे ही यज्ञके अधीश्वर होकर पार्वती ! 'नारायणाय' इस चतुर्थ्यन्त पदसे जीवके