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उतरखण]
• देवसर्ग तथा भगवानके चतुहका वर्णन .
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रखनेवाले भगवान् मधुसूदनने योगनिद्राको प्राप्त होकर पशुओंको प्रकट किया। भगवान्के मुखसे ब्राह्मण, दोनों मायाके साथ चिरकालतक रमण किया। उससे भुजाओंसे क्षत्रिय, जाँघोंसे वैश्य तथा दोनों चरणोंसे शूद्र कालात्माको जन्म दिया, जो कला, काष्ठा, मुहूर्त, पक्ष जातिको उत्पत्ति हुई।
और मास आदिके रूपमें उपलब्ध होता है। उस समय इस प्रकार सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करके देवेश्वर श्रीहरिका नाभिकमल, जो सम्पूर्ण जगत्का बीज और श्रीकृष्णने उसे अचेतन रूपमें स्थित देख स्वयं ही परम तेजस्वी था, मुकुलाकार हो विकसित होने लगा। विश्वरूपसे उसके भीतर प्रवेश किया। श्रीहरिकी शक्तिके उसीसे परम बुद्धिमान् ब्रह्माजी प्रकट हुए। उनके मनमें विना संसार हिल-डुल नहीं सकता। इसलिये सनातन रजोगुणकी प्रेरणासे सृष्टिकी इच्छा उत्पन्न हुई। तब श्रीविष्णु ही सम्पूर्ण जगत्के प्राण हैं। वे ही अव्यक्त उन्होंने योगनिद्रामें सोये हुए परमेश्वरका स्तवन किया। रूपमें स्थित होनेपर परमात्मा कहलाते हैं। वे षड्विध
ब्रह्माजीके स्तवन करनेपर समस्त इन्द्रियोंके स्वामी ऐश्वर्यसे परिपूर्ण सनातन वासुदेव हैं। वे अपने तीन परमेश्वर श्रीविष्णु योगनिद्रासे उठ गये। योगनिद्राको गुणोंसे चार स्वरूपोंमें स्थित होकर जगतकी सृष्टि करते काबूम करके उन्होंने जगत्की सृष्टि आरम्भ की। हैं। प्रधुम्ररूपधारी भगवान् सब ऐवयोंसे युक्त हैं। वे जगत्के स्वामी श्रीअच्युतने पहले एक क्षणतक कुछ ब्रह्मा, प्रजापति, काल तथा जीव-सबके अन्तर्यामी विचार किया। विचारके पश्चात् उन्होंने सम्पूर्ण जगत्की होकर सृष्टिका कार्य भलीभाँति सिद्ध करते हैं। महात्मा सृष्टि की। उस समय सब लोकोंसे युक्त सुवर्णमय वासुदेवने उन्हें इतिहाससहित सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञान प्रदान अण्डको, सात द्वीप, सात समुद्र और पर्वतोसहित किया है। लोकपितामह ब्रह्माजी प्रद्युम्नके ही अंशभागी पृथ्वीको तथा एक अण्डकटाहको भी भगवान्ने अपने हैं। वे संसारकी सृष्टि और पालन भी करते हैं। भगवान् नाभिकमलसे उत्पन्न किया। तत्पश्चात् उस अण्डमें श्रीहरि अनिरुद्ध शक्ति और तेजसे सम्पन्न है। वे मनुओं, स्वयं ही स्थित हुए। तदनन्तर नारायणने अपने मनसे राजाओं, काल तथा जीवके अन्तर्यामी होकर सबका इच्छानुसार ध्यान किया। ध्यानके अन्तमें उनके ललाटसे पालन करते हैं। संकर्षण महाविष्णुरूप हैं। उनमें विद्या पसीनेकी बूंद प्रकट हुई। वह बूंद बुदबुदेके आकारमें और बल दोनों हैं। वे सम्पूर्ण भूतोंके काल, रुद्र और परिणत हो तत्क्षण पृथ्वीपर गिर पड़ी। पार्वती ! उसी यमके अन्तर्यामी होकर जगत्का संहार करते हैं। मत्स्य, बुदबुदेसे में उत्पन्न हूँ। उस समय रुद्राक्षकी माला और कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, त्रिशूल हाथमें लेकर जटामय मुकुटसे अलंकृत हो मैंने बुद्ध और कल्कि-ये दस भगवान् विष्णुके अवतार है। विनयपूर्वक देवेश्वर श्रीविष्णुसे पूछा-'मेरे लिये क्या, पार्वती ! श्रीहरिकी उस अवस्थाका वर्णन सुनो। आज्ञा है। तब भगवान् नारायणने प्रसन्नतापूर्वक मुझसे परमश्रेष्ठ वैकुण्ठलोक, विष्णुलोक, श्वेतद्वीप और कहा-'रुद्र ! तुम संसारका भयंकर संहार करनेवाले क्षीरसागर-ये चार व्यूह महर्षियोंद्वारा बताये गये हैं। होओगे।' इस प्रकार मैं भयंकर आकृतिमे जगत्का वैकुण्ठलोक जलके घेरेमें है। वह कारणरूप और शुभ संहार करनेके लिये ही भगवान् नारायणके श्रीअङ्गसे है। उसका तेज कोटि अग्नियोंके समान उद्दीप्त रहता है। उत्पन्न हुआ। जनार्दनने मुझे संहारके कार्यमें नियुक्त वह सम्पूर्ण धर्मोंसे युक्त और अविनाशी है। परमधामका करके पुनः अपने नेत्रोंसे अन्धकार दूर करनेवाले चन्द्रमा जैसा लक्षण बताया गया है, वैसा ही उसका भी है। नाना
और सूर्यको उत्पन्न किया। फिर कानोंसे वायु और प्रकारके रलोंसे उदासित वैकुण्ठनगर चण्ड आदि दिशाओको, मुखकमलसे इन्द्र और अनिको, नासिकाके द्वारपालो और कुमुद आदि दिक्पालोसे सुरक्षित है। छिद्रोंसे वरुण और मित्रको, भुजाओंसे साध्य और भाँति-भाँतिकी मणियोंसे बने हुए दिव्य गृहोंकी मरुद्रणोंसहित सम्पूर्ण देवताओंको, रोमकूपोंसे वन और पङ्क्तियोंसे वह नगर घिरा हुआ है। उसकी चौड़ाई ओषधियोंको तथा त्वचासे पर्वत, समुद्र और गाय आदि पचपन योजन तथा लंबाई एक हजार योजन है। करोड़ों