Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 941
________________ उत्तरखण्डत • नृसिंहावतार एवं प्रहादजीको कथा • ९४१ प्रहाद बोले-अहो ! भगवान्की कैसी महिमा श्रीविष्णुके उस परम पदको प्राप्त कर लँगा। है, जिनको मायासे सारा जगत् मोहित हो रहा है ! कितने प्रह्लादको ये बातें सुनकर हिरण्यकशिपु अत्यन्त आश्चर्यकी बात है कि वेदान्तके विद्वान् और सब लोकोंमें क्रोध भरकर द्वितीय अग्निकी भाँति जल उठा और चारों पूजित ब्राह्मण भी मदोन्मत्त होकर चपलतावश ऐसी बातें ओर देखकर दैत्योंसे बोला-'अरे ! यह प्रह्लाद बड़ा कहते हैं। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि नारायण ही परब्रह्म पापी है। यह शत्रुको पूजामें लगा है। मैं आज्ञा देता हैं। नारायण ही परमतत्त्व हैं, नारायण ही सर्वश्रेष्ठ ध्याता है- इसे भयंकर शस्त्रोंसे मार डालो। जिसके बलपर और नारायण ही सर्वोत्तम ध्यान हैं। सम्पूर्ण जगत्की यह 'श्रीहरि ही रक्षक हैं' ऐसा कहता है, उसे आज ही गति भी वे ही हैं। वे सनातन, शिव, अच्युत, जगत्के देखना है। उस हरिका रक्षा-कार्य कितना सफल हैघाता, विधाता और नित्य वासुदेव हैं। परम पुरुष यह अभी मालूम हो जायगा।' नारायण ही यह सम्पूर्ण विश्व है और वे ही इस विश्वको दैत्यराजकी यह आज्ञा पाते ही दैत्य हथियार जीवन प्रदान करते हैं। उनका श्रीअङ्ग सुवर्णके समान उठाकर महात्मा प्रह्लादको मार डालनेके लिये उन्हें चारों कान्तिमान् है। वे नित्य देवता हैं। उनके नेत्र कमलके ओरसे घेरकर खड़े हो गये। इधर प्रह्लाद भी अपने समान हैं। वे श्री, भू और लीला-इन तीनों देवियोंके हृदय-कमलमें श्रीविष्णुका ध्यान करते हुए अष्टाक्षरस्वामी हैं। उनकी आकृति सुन्दर और सौम्य है तथा मन्त्रका जप करने लगे और दूसरे पर्वतकी भाँति अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल है। उन्होंने ही सम्पूर्ण अविचलभावसे खड़े रहे। दैत्यवीर चारों ओरसे उनके देवताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मा और महादेवजीको उत्पन्न किया ऊपर शूल, तोमर और शक्तियोंसे प्रहार करने लगे। है। ब्रह्मा और महादेवजी उन्हकि आज्ञानुसार चलते हैं। परन्तु श्रीहरिका स्मरण करनेके कारण प्रह्लादका शरीर उन्हींक भयसे वायु सदा गतिशील रहती है। उन्हकि उस समय भगवान्के प्रभावसे दुर्धर्ष वज्रके समान हो डरसे सूर्यदेव ठीक समयपर उदित होते हैं। और उन्हींके गया। देवद्रोहियोंके बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र प्रह्लादके भयसे अनि, इन्द्र तथा मृत्यु देवता सदा दौड़ लगाते शरीरसे टकराकर टूट जाते और कमलके पत्तोंके समान रहते हैं। सृष्टिके आदिमें एकमात्र नित्य देवता भगवान् छिन्न-भिन्न होकर पृथ्वीपर गिर जाते थे। दैत्य उनके नारायण ही थे। उस समय न ब्रह्मा थे और न अङ्गमें छोटा-सा भी घाव करनेमें समर्थ न हो सके। तब महादेवजी, न चन्द्रमा थे न सूर्य, न आकाश था न विस्मयसे नीचा मुँह किये वे सभी योद्धा दैत्यराजके पास पृथ्वी । नक्षत्र और देवता भी उस समय प्रकट नहीं हुए जा चुपचाप खड़े हो गये। अपने महात्मा पुत्रको इस थे। विद्वान् पुरुष सदा ही भगवान् विष्णुके उस प्रकार तनिक भी चोट पहुंचती न देख दैत्यराज परमधामका साक्षात्कार करते हैं। परम योगी महात्मा हिरण्यकशिपुको बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने क्रोधसे सनकादि भी जिन भगवान् विष्णुका ध्यान करते हैं, व्याकुल होकर वासुकि आदि बड़े-बड़े विषैले ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि देवता भी जिनकी और भयंकर सोको आज्ञा दी कि 'इस प्रहादको आराधनामें लगे रहते हैं, जिनकी पत्नी भगवती लक्ष्मीकी काट खाओ।' कृपा-कटाक्षपूर्ण आधी दृष्टि पड़नेपर ही ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, राजाका यह आदेश पाकर अत्यन्त भयंकर और वरुण, यम, चन्द्रमा और कुबेर आदि देवता हर्षसे फूल महायली नाग, जिनके मुखोंसे आगकी लपटें निकल रही उठते हैं, जिनके नामोंका स्मरण करनेमात्रसे पापियोंकी थीं, प्रह्लादको काट खानेकी चेष्टा करने लगे; किन्तु उनके भी तत्काल मुक्ति हो जाती है, वे भगवान् लक्ष्मीपति ही शरीरमें दाँत लगाते ही वे सर्प विषोंसे हाथ धो बैठे। देवताओंकी भी सदा रक्षा करते हैं। मैं लक्ष्मीसहित उन उनके दाँत भी टूट गये तथा हजारों गरुड़ प्रकट होकर परमेश्वरका ही सदा पूजन करूँगा। तथा अनायास ही उनके शरीरको छिन्न-भिन्न करने लगे। इससे व्याकुल

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