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९३२ अर्चवस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पञ्चपुराण memenessmeenasammetreenatrenamesternmenternama श्रीहरिको आनन्दित करती हैं। इनके सिवा दिव्य आश्रयभूता महामायाने हाथ जोड़कर प्रकृतिके साथ अप्सराएँ तथा पाँच सौ युवती स्त्रियाँ भगवानके उनकी भाँति-भाँतिसे स्तुति करके कहा-केशव ! इन अन्तःपुरमें निवास करती हैं, जो सब प्रकारके जीवोंके लिये लोक और शरीर प्रदान कीजिये। सर्वज्ञ ! आभूषणोंसे विभूषित, कोटि अग्मियोंके समान तेजस्विनी, आप पूर्वकल्पोंकी भाँति अपनी लीलामयी विभूतियोंका समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त तथा चन्द्रमुखी है। उन विस्तार कीजिये। जड़-चेतनमय सम्पूर्ण चराचर जगत् सबके हाथोंमें कमलके पुष्प शोभा पाते हैं। उन सबसे अज्ञान अवस्थामें पड़ा है। आप लीला-विस्तारके लिये घिरे हुए महाराज परम पुरुष श्रीहरिकी बड़ी शोभा होती इसपर दृष्टिपात कीजिये। परमेश्वर ! मेरे तथा प्रकृतिके है। अनन्त (शेषनाग), गरुड़ तथा सेनानी आदि देवेश्वरो, साथ जगत्की सृष्टि कीजिये। धर्म-अधर्म, सुखअन्यान्य पार्षदों तथा नित्यमुक्त भक्तोंसे सेवित हो रमा- दुःख-सबका संसारमें प्रवेश कराके आप मुझे अपनी सहित परम पुरुष श्रीविष्णु भोग और ऐश्वर्यके द्वारा सदा आज्ञामें रखकर शीघ्र ही लीला आरम्भ कीजिये।। आनन्दमग्न रहते हैं। इस प्रकार वैकुण्ठधामके अधिपति श्रीमहादेवजी कहते है-मायादेवीके इस प्रकार भगवान् नारायण अपने परम पदमें रमण करते हैं। कहनेपर परमेश्वरने उसके भीतर जगत्की सृष्टि आरम्भ - पार्वती ! अब मैं भगवान्के भिन्न-भिन्न व्यूहों और की। जो प्रकृतिसे परे पुरुष कहलाते हैं, वे अच्युत लोकोंका वर्णन करता हूँ। वैकुण्ठधामके पूर्वभागमें भगवान् विष्णु ही प्रकृति में प्रविष्ट हुए। ब्रह्मस्वरूप श्रीवासुदेवका मन्दिर है। अग्निकोणमें लक्ष्मीका लोक श्रीहरिने प्रकृतिसे महत्तत्वको उत्पन्न किया, जो सब है। दक्षिण-दिशामें श्रीसंकर्षणका भवन है। नैर्ऋत्य- भूतोंका आदि कारण है। महत्से अहंकारका जन्म हुआ। कोणमें सरस्वतीदेवीका लोक है। पश्चिम-दिशामें यह अहंकार सत्यादि गुणोंके भेदसे तीन प्रकारका हैश्रीप्रद्युम्रका मन्दिर है। वायव्यकोणमें रतिका लोक है। सात्त्विक, राजस और तामस । विश्वभावन परमात्माने उन उत्तर-दिशामें श्रीअनिरुद्धका स्थान है और ईशानकोणमें गुणोंसे अर्थात् तामस अहंकारसे तन्मात्राओंको उत्पन्न शान्तिलोक है। भगवान्के परम धामको सूर्य, चन्द्रमा किया। तन्मात्राओंसे आकाश आदि पञ्चमहाभूत प्रकट और अग्नि नहीं प्रकाशित करते । कठोर व्रतोंका पालन हुए, जिनमें क्रमशः एक-एक गुण अधिक है। आकाशसे करनेवाले योगिजन वहाँ जाकर फिर इस संसारमें नहीं वायु, वायुसे अग्नि, अग्रिसे जल और जलसे पृथ्वीका लौटते। जो दो नामोंके एक मन्त्र (लक्ष्मीनारायण) के प्रादुर्भाव हुआ। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये जपमें लगे रहते हैं, वे निश्चय ही उस अविनाशी पदको ही क्रमशः आकाश आदि पशभूतोंके प्रधान गुण हैं। प्राप्त होते हैं। मनुष्य अनन्य भक्तिके साथ उक्त मन्त्रका महाप्रभु श्रीहरिने उत्तरोत्तर भूतोंमें अधिक गुण देख उन जप करके उस सनातन दिव्य धामको अनायास ही प्राप्त सबको लेकर एकमें मिला दिया। तथा सबके मेलसे कर लेते है। उनके लिये वह पद जैसा सुगम होता है, महान् विश्वब्रह्माण्डकी सृष्टि की । उसीमें पुरुषोत्तमने चौदह वैसा वेदोंके अध्ययन, यज्ञ, दान, शुभवत, तपस्या, भुवन तथा ब्रह्मादि देवताओंको उत्पत्र किया। पार्वती ! उपवास तथा अन्य साधनोंसे भी नहीं होता। त्रिपाद्- दैव, तिर्यक्, मानव और स्थावर-यह चार प्रकारका विभूतिमें जहाँ भगवान् परमेश्वर भगवती लक्ष्मीजीके महासर्ग रचा गया। इन चारों सगों अथवा योनियों में जीव साथ सदा आनन्दका अनुभव करते हैं, वहाँ संसारकी अपने-अपने कोंक अनुसार जन्म लेते हैं।
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देवसर्ग तथा भगवानके चतुर्दूहका वर्णन पार्वतीजीने कहा-भगवन् ! परम उत्तम भगवान्के अवतारोंकी कथा भी विस्तृत रूपसे कहिये। देवसर्गका विस्तारके साथ वर्णन कीजिये। साथ ही श्रीमहादेवजी बोले-देवि ! सृष्टिको इच्छा