Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 929
________________ उत्तरखण्ड ] . श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, थाम एवं विभूतियोंका वर्णन • २२९ और संहार करते हैं। देवाधिदेव श्रीविष्णुने लीलाके लिये कारण अत्यन्त अद्भुत, रमणीय, नित्य तथा आनन्दका जगन्मयी मायाकी सृष्टि की है। वही अविद्या, प्रकृति, सागर है। श्रीविष्णुका वह परमपद ऐसे ही गुणोंसे युक्त माया और महाविद्या कहाती है। सृष्टि, पालन और है। उसे सूर्य, चन्द्रमा तथा अनिदेव नहीं प्रकाशित संहारका कारण भी वही है। वह सदा रहनेवाली है। करते-वह अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित है। जहाँ योगनिद्रा और महामाया भी उसीके नाम हैं। प्रकृति जाकर जीव फिर कभी नहीं लौटते, वही श्रीहरिका परम सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणोंसे युक्त है। उसे धाम है। श्रीविष्णुका वह परमधाम नित्य, शाश्वत एवं अव्यक्त और प्रधान भी कहते हैं। वह लीलाविहारी अच्युत है। सौ करोड़ कल्पोंमें भी उसका वर्णन नहीं श्रीकृष्णकी क्रीड़ास्थली है। संसारकी उत्पत्ति और प्रलय किया जा सकता। मैं, ब्रह्मा तथा श्रेष्ठ मुनि श्रीहरिके उस सदा उसीसे होते हैं। प्रकृतिके स्थान असंख्य हैं, जो घोर पदका वर्णन नहीं कर सकते । जहाँ अपनी महिमासे कभी अन्धकारसे पूर्ण हैं। प्रकृतिसे ऊपरकी सीमामें विरजा च्युत न होनेवाले साक्षात् परमेश्वर श्रीविष्णु विराजमान हैं, नामकी नदी है; किन्तु नीचेकी ओर उस सनातनी उसकी महिमाको वे स्वयं ही जानते हैं। जो अविनाशी पद प्रकृतिकी कोई सीमा नहीं है। उसने स्थूल, सूक्ष्म आदि है, जिसकी महिमाका वेदोंमें गूढरूपसे वर्णन है तथा अवस्थाओंके द्वारा सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त कर रखा है। जिसमें सम्पूर्ण देवता और लोक स्थित हैं उसे जो नहीं प्रकृति के विकाससे सृष्टि और संकोचावस्थासे प्रलय होते जानता, वह केवल ऋचाओंका पाठ करके क्या करेगा। हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण भूत प्रकृतिके ही अन्तर्गत हैं। यह जो उसे जानते हैं, वे ही ज्ञानी पुरुष समभावसे स्थित होते जो महान् शून्य (आकाश) है, वह सब भी प्रकृतिके ही हैं। श्रीविष्णुके उस परम पदको ज्ञानी पुरुष सदा देखते भीतर है। इस तरह प्राकृतरूप ब्रह्माण्ड अथवा हैं। वह अक्षर, शाश्वत, नित्य एवं सर्वत्र व्याप्त है। पादविभूतिके स्वरूपका अच्छी तरह वर्णन किया गया। कल्याणकारी नामसे युक्त भगवान् विष्णुके उस गिरिराजकुमारी ! अब त्रिपाट्-विभूतिके स्वरूपका परमधाम-गोलोकमें बड़े सींगोवाली गौएँ रहती है तथा वर्णन सुनो। प्रकृति एवं परम व्योमके बीचमे विरजा वहाँकी प्रजा बड़े सुखसे रहा करती है। गौओं तथा नामकी नदी है। वह कल्याणमयी सरिता वेदाङ्गोंके पीनेयोग्य सुखदायक पदार्थोंसे उस परम धामकी बड़ी स्वेदजनित जलसे प्रवाहित होती है। उसके दूसरे पारमें शोभा होती है। वह सूर्यके समान प्रकाशमान, परम व्योम है, जिसमें त्रिपाद्-विभूतिमय सनातन, अमृत, अन्धकारसे परे, ज्योतिर्मय एवं अच्युत- अविनाशी पद शाश्वत, नित्य एवं अनन्त परम धाम है। वह शुद्ध, है। श्रीविष्णुके उस परम धामको ही मोक्ष कहते हैं। वहाँ सत्त्वमय, दिव्य, अक्षर एवं परब्रहाका धाम है। उसका जीव बन्धनसे मुक्त होकर अपने लिये सुखकर पदको प्राप्त तेज अनेक कोटि सूर्य तथा अग्नियोंके समान है। वह होते हैं। वहाँ जानेपर जीव पुनः इस लोकमें नही लौटते; धाम अविनाशी, सर्ववेदमय, शुद्ध, सब प्रकारके प्रलयसे इसलिये उसे मोक्ष कहा गया है। मोक्ष, परमपद, अमृत, रहित, परिमाणशून्य, कभी जीर्ण न होनेवाला, नित्य, विष्णुमन्दिर, अक्षर, परमधाम, वैकुण्ठ, शाश्वतपद, जाग्रत्, स्वन आदि अवस्थाओंसे रहित, हिरण्यमय, नित्यधाम, परमव्योम, सर्वोत्कृष्ट पद तथा सनातन मोक्षपद, ब्रह्मानन्दमय, सुखसे परिपूर्ण, न्यूनता- पद-ये अविनाशी परम धामके पर्यायवाची शब्द हैं। अधिकता तथा आदि-अन्तसे शून्य, शुभ, तेजस्वी होनेके अब उस त्रिपाविभूतिके स्वरूपका वर्णन कऊँगा।

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