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उत्तरखण्ड ]
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• मार्कण्डेयजीका जन्म, अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युञ्जय स्तोत्रका वर्णन ●
कहा- 'जगदीश्वर ! मैं गुणहीन पुत्र नहीं चाहता। उसकी आयु छोटी ही क्यों न हो, वह सर्वज्ञ होना चाहिये।'
भगवान् शङ्कर बोले- अच्छा, तो तुम्हें सोलह वर्षकी आयुवाला एक पुत्र प्राप्त होगा, जो परम धार्मिक, सर्वज्ञ, गुणवान्, लोकमें यशस्वी और ज्ञानका समुद्र होगा।
ऐसा कहकर भगवान् शिव अन्तर्धान हो गये और मुनिवर मृकण्डु इच्छानुसार वरदान पाकर प्रसन्न हो अपने आश्रममें लौट आये। उनकी पत्नी मरुद्वती बहुत दिनोंके बाद गर्भवती हुई। मुनिने विधिपूर्वक गर्भाधान संस्कार किया था । तदनन्तर गर्भस्थ बालकमें चेष्टा उत्पन्न होनेसे पहले पुरुषकी वृद्धिके लिये उन्होंने किसी शुभ दिनको गृह्यसूत्रोंमें बतायी हुई विधिके अनुसार अच्छे ढंगसे पुंसवन संस्कार किया। जब आठवाँ मास आया, तब संस्कार कर्मो के ज्ञाता उन मुनीश्वरने गर्भके रूपकी समृद्धि और सुखपूर्वक सन्तानकी उत्पत्ति होनेके लिये सीमन्तोन्नयन संस्कार किया। समय आनेपर मरुद्वतीके गर्भसे सूर्यके समान तेजस्वी पुत्रका जन्म हुआ। उस समय देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं, सम्पूर्ण दिशाएँ स्वच्छ हो गयीं और सब ओरसे प्राणियोंको तृप्त करने वाली कल्याणमयी वाणी सुनायी देने लगी। बालककी शान्तिके लिये वेदव्यास आदि मुनि भी मृकण्डुके आश्रमपर पधारे। साक्षात् महामुनि वेदव्यासने बालकका जातकर्म संस्कार कराया। तत्पश्चात् ग्यारहवें दिन मुनिने नामकरण संस्कार किया। उसके बाद नाना प्रकारके वेदोक्त मन्त्रों और आशीर्वादोंसे अभिनन्दन करके मुनियोंने बालककी रक्षाका शास्त्रीय उपाय किया। फिर मृकण्डु मुनिके द्वारा पूजित हो वे सब लोग लौट गये।
उस समय नगर और प्रान्तके लोग हर्षमें भरकर आपसमें कहते थे— 'अहो! इस बालकका अद्भुत रूप है! अद्भुत तेज है ! और समस्त अङ्गका लक्षण भी अद्भुत है। मरुद्वतीके सौभाग्यसे साक्षात् भगवान् शङ्कर ही इस बालकके रूपमें प्रकट हुए हैं, यह कितने आश्चर्यकी बात है। चौथे महीनेमें पिताने पुत्रको घरसे
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बाहर निकाला। छठे महीनेमें उसका अत्रप्राशन कराया। फिर ढाई वर्षकी अवस्थामे चूडाकर्म करके श्रवण नक्षत्रमें कर्णवेध किया। तदनन्तर कर्मक ज्ञाता मुकण्डु मुनिने बालकके ब्रह्मतेजकी वृद्धिके लिये पाँचवे वर्षकी अवस्थामें उसे यज्ञोपवीत दे दिया। फिर उपाकर्म करके विद्वान् मुनिने बालकको वेद पढ़ाया। उसने अङ्ग, उपाङ्ग, पद तथा क्रमसहित सम्पूर्ण वेदोंका विधिपूर्वक अध्ययन किया। वह बालक बड़ा शक्तिशाली था। गुरु तो उसके साक्षीमात्र थे। उसने विनय आदि गुणोंको प्रकट करते हुए गुरुमुखसे समस्त विद्याओंको ग्रहण किया। वह भिक्षाके अन्नसे जीवन निर्वाह करता हुआ प्रतिदिन माता-पिताकी सेवामें संलग्न रहता था, बुद्धिमान् मार्कण्डेयकी आयुका सोलहवाँ वर्ष प्रारम्भ होनेपर मृकण्डु मुनिका हृदय शोकसे कातर हो उठा। उनकी सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें व्याकुलता छा गयी। वे दीनतापूर्वक विलाप करने लगे। मार्कण्डेयने पिताको अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करते देख पूछा-तात! आपके शोकमोहका क्या कारण है ?' मार्कण्डेयके मधुर वचन सुनकर मृकण्डुने अपने शोकका युक्तियुक्त कारण बताया।
मृकण्ड बोले- बेटा! पिनाकधारी भगवान् शङ्करने तुम्हें सोलह वर्षकी ही आयु दी है। उसकी समाप्तिका समय अब आ पहुँचा है; इसीलिये मुझे शोक हो रहा है।
पिताका यह कथन सुनकर मार्कण्डेयने कहा'पिताजी! आप मेरे लिये कदापि शोक न कीजिये। मैं ऐसा यत्न करूँगा, जिससे अमर हो जाऊँ महादेवजी सबको मनोवाञ्छित वस्तु प्रदान करनेवाले और कल्याणस्वरूप हैं। वे मृत्युको जीतनेवाले, विकराल नेत्रधारी, सर्वज्ञ, सत्पुरुषोंको सब कुछ देनेवाले, कालके भी काल, महाकालरूप और कालकूट विषको भक्षण करनेवाले हैं। मैं उन्हींकी आराधना करके अमरत्व प्राप्त करूँगा।' पुत्रकी यह बात सुनकर माता-पिताको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने सारा शोक छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक कहा- 'बेटा! तुमने हम दोनोंका शोक नष्ट करनेके लिये भगवान् मृत्युञ्जयकी आराधनारूप महान् उपायका