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उत्तरखण्ड ]
. मार्कण्डेयजीका जन्म, अमरत्व-प्राप्ति तथा मृत्युनय-स्तोत्रका वर्णन .
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आ पहुँचा है, वह कुशके अग्रभागसे छू जानेपर भी किया। उसी समय परमेश्वर शिव उस लिङ्गसे सहसा जीवित नहीं रहता। मैं हजारों चक्रवर्ती राजाओं और प्रकट हो गये। उनको अवस्था, उनका रूप-सब कुछ सैकड़ों इन्द्रोंको भी अपना ग्रास बना चुका हूँ। अतः इस अवर्णनीय था। मस्तकपर अर्धचन्द्राकार मुकुट शोभा पा विषयमें तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये।' रहा था। हुंकार भरकर मेघके समान प्रचण्ड गर्जना करते
जिसका प्रयास कभी विफल नहीं होता, उस हुए उन्होंने तुरंत ही मृत्युकी छातीमें लात मारी। मृत्युदेव कालके उपर्युक्त वचन सुनकर शिवजीकी स्तुतिमें तत्पर उनके चरण-प्रहारसे भयभीत हो दूर जा पड़े। भयंकर रहनेवाले मार्कण्डेयजीने कहा-'काल ! भगवान् आकारवाले कालको दूर पड़ा देख मार्कण्डेयजीने पुनः शिवकी स्तुतिमें लगे रहनेवाले पुरुषोंके कार्यमें जो लोग उस स्तोत्रसे भगवान् शङ्करका स्तवन कियाविघ्र डालते हैं, वे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। इसीलिये मैं कैलासके शिखरपर जिनका निवासगृह है, जिन्होंने तुम्हें मना करता हूँ। जैसे राजाके सिपाहियोंपर राजा ही मेरुगिरिका घनुष, नागराज वासुकिकी प्रत्यच्चा और शासन कर सकता है, दूसरा कोई नहीं, उसी प्रकार भगवान् विष्णुको अग्निमय बाण बनाकर तत्काल ही शिवजीके भक्तोंका परमेश्वर शिव ही शासन कर सकते दैत्योंके तीनों पुरोको दग्ध कर डाला था, सम्पूर्ण देवता हैं। भगवान् शङ्करके सेवक पर्वतोंको भी विदीर्ण कर जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं, उन भगवान् चन्द्रडालते है, समुद्रोंको भी पी जाते हैं तथा पृथ्वी और शेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा? अन्तरिक्षको भी हिला देते हैं। इतना ही नहीं, वे ब्रह्मा मन्दार, पारिजात, संतान, कल्पवृक्ष और और इन्द्रको भी तिनकेके समान समझते हैं। भला हरिचन्दन-इन पांच दिव्य वृक्षोंके पुष्पोंसे सुगन्धित उनके लिये कौन-सा कार्य दुष्कर है ! भगवान् शिवके युगल चरण-कमल जिनकी शोभा बढ़ाते है, जिन्होंने भक्तोंपर मृत्यु, ब्रह्मा, यमराज, यमदूत तथा दूसरे कोई अपने ललाटवर्ती नेत्रसे प्रकट हुई आगकी ज्वालामें भी अपना प्रभुत्व नहीं स्थापित कर सकते । काल ! क्या कामदेवके शरीरको भस्म कर डाला था, जिनका तुमने मनीषो पुरुषोंका यह वचन नहीं सुना है कि श्रीविग्रह सदा भस्मसे विभूषित रहता है, जो शिवभक्त मनुष्योंपर कहीं भी आपत्ति नहीं आती। ब्रह्मा भव-सबकी उत्पत्तिके कारण होते हुए भी भवआदि सम्पूर्ण देवता क्रुद्ध हो जायें, तो भी वे उन्हें संसारके नाशक हैं तथा जिनका कभी विनाश नहीं होता, मारनेकी शक्ति नहीं रखते।'
उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मार्कण्डेयजीके इस प्रकार फटकारनेपर भगवान् मेरा क्या करेगा? काल आँखें फाड़-फाड़कर उनकी ओर देखने लगे, मानो जो मतवाले गजराजके मुख्य चर्मकी चादर ओढ़े तीनों लोकोंको निगल जायेंगे। वे क्रोधमें भरकर परम मनोहर जान पड़ते हैं, ब्रह्मा और विष्णु भी जिनके बोले-'ओ दुर्बुद्धि ब्राह्मण ! गङ्गाजीमें जितने बालूके चरण-कमलोकी पूजा करते हैं तथा जो देवताओं और कण हैं, उतने ब्रह्माओंका इस कालने संहार कर डाला सिद्धोंकी नदी गङ्गाको तरङ्गोंसे भीगी हुई शीतल जटा है। इस विषयमें बहुत कहनेकी क्या आवश्यकता । मेरा धारण करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता बल और पराक्रम देखो, मैं तुम्हें अपना ग्रास बनाता हूँ हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा? तुम इस समय जिनके दास बने बैठे हो, वे महादेव गेंडल मारे हुए सर्पराज जिनके कानोंमें कुण्डलका मुझसे तुम्हारी रक्षा करें तो सही।'
काम देते हैं, जो वृषभपर सवारी करते हैं, नारद आदि वसिष्ठजी कहते हैं-राजन् ! जैसे राहु मुनीश्वर जिनके वैभवकी स्तुति करते हैं, जो समस्त चन्द्रमाको ग्रस लेता है, उसी प्रकार गर्जना करते हुए भुवनोंके स्वामी, अन्धकासुरका नाश करनेवाले, कालने महामुनि मार्कण्डेयको हठपूर्वक प्रसना आरम्भ आश्रितजनोंके लिये कल्पवृक्षके समान और यमराजको संध्यपु. ३०