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उत्तरखण्ड ] • मृगमनके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी-यात्रा, काशी-माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति •
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पालन करती रहीं। तत्पश्चात् जोवनके अन्तिम भागमें प्राप्ति ही योग है, यह काशीको प्राप्ति ही तप है, यह बुढ़ापेके कारण उनके बाल सफेद हो गये। उनकी कमर काशीकी प्राप्ति ही दान है और यह काशीकी प्राप्ति ही झुक गयो। मुँहमें एक-ही-दो दाँत रह गये तथा शिवकी पूजा है। यह काशीकी प्राप्ति ही यज्ञ, यह इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ प्रायः नष्ट हो गयीं। मुनिश्रेष्ठ मृकण्डुके काशीकी प्राप्ति ही कर्म, यह काशीकी प्राप्ति ही स्वर्ग और मरुद्वतीसे कोई सन्तान नहीं हुई । उन्होंने माताओंकी वैसी यह काशौकी प्राप्ति ही सुख है। काशीमें निवास अवस्था देख मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया-'मैं करनेवाले मनुष्योंके लिये काम, क्रोध, मद, लोभ, माताओंको साथ ले स्त्रीसहित भगवान् शङ्करकी अहङ्कार, मात्सर्य, अज्ञान, कर्म, जडता, भय, काल, राजधानीमें जाऊँगा, जहाँ वे मुमूर्षु पुरुषोंके कानोंमें बुढ़ापा, रजोगुण और विघ्न-बाधा क्या चीज है? ये तारक-मन्त्रका उपदेश दिया करते हैं। ऐसा निश्चय उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। करके उन्होंने काशीपुरीकी ओर प्रस्थान किया। वे मार्गमे अपनी माताओका मार्गजनित कष्ट दूर करनेके काशीकी महिमाका इस प्रकार बखान करने लगे। लिये इस प्रकारकी बातें करते हुए मकण्डु मुनि धीरे-धीरे
मृकण्डु बोले-जो माता, पिता और अपने चलकर माताओसहित काशीपुरीमें जा पहुंचे। वहां उन बन्धुओं द्वारा त्याग दिये गये हैं, जिनकी संसारमें कहीं भी मुनिने बिना विलम्ब किये सबसे पहले मणिकर्णिकाके गति नहीं है, उनके लिये काशीपुरी ही उत्तम गति है । जो जलमें विधिपूर्वक वस्त्रसहित स्नान किया। तत्पश्चात् जरावस्थासे ग्रस्त और नाना प्रकारके रोगोंसे व्याकुल हैं, सन्ध्या आदि शुभ कर्मोंका अनुष्ठान करके पवित्र हो जिनके ऊपर दिन-रात पग-पगपर विपत्तियोंका आक्रमण उन्होंने चन्दन और कुशमिश्रित जलसे सम्पूर्ण देवताओं होता है, जो कर्मोके बन्धनमें आबद्ध और संसारसे और ऋषियोंका तर्पण किया। फिर अमृतके समान तिरस्कृत हैं, जिन्हें राशि-राशि पापोने दबा रखा है, स्वादिष्ठ पकवान, शक्कर मिली हुई खीर तथा गोरससे जो दरिद्रतासे परास्त, योगसे भ्रष्ट तथा तपस्या और सम्पूर्ण तीर्थ-निवासियोको पृथक्-पृथक् तृप्त करके दानसे वर्जित हैं, जिनके लिये कहीं भी गति नहीं है, उनके अन्नदान, धान्यदान, गन्ध, चन्दन, कपूर, पान और लिये काशीपुरी ही उत्तम गति है। जिन्हें भाई-बन्धुओंके सुन्दर वस्त्र आदिके द्वारा दीनों एवं अनाथोंका सत्कार बीच पग-पगपर मानहानि उठानी पड़ती हो, उनको किया। उसके बाद भक्तिपूर्वक दुण्डिराज गणेशके एकमात्र भगवान् शिवका आनन्दकानन-काशीपुरी ही शरीरमें घी और सिन्दूरका लेप किया और पाँच लड्डू आनन्द प्रदान करनेवाला है। आनन्दकानन काशीमें चढ़ाकर आत्मीयजनोंको विघ्न-बाधाओंके आक्रमणसे निवास करनेवाले दुष्ट पुरुषोंको भी भगवान् शङ्करके बचाते हुए अन्तःक्षेत्रमें प्रवेश किया। वहाँ समस्त अनुग्रहसे आनन्दजनित सुखकी प्राप्ति होती है। काशीमें आवरण-देवताओंकी यथाशक्ति पूजा की। तदनन्तर विश्वनाथरूपी आगकी आँचसे सारे कर्ममय बीज भुन महामना मृकण्डुने भगवान् विश्वनाथको नमस्कार और जाते हैं; अतः वह काशीतीर्थ जिनकी कहीं भी गति नहीं उनकी स्तुति करके माताओंके साथ विधिपूर्वक है, ऐसे पुरुषोंको भी उत्तम गति प्रदान करनेवाला है। क्षेत्रोपवास किया। विश्वनाथजीके समीप उन्होंने जागकर वहाँ संसाररूपी सर्पसे इंसे हुए जीवोंको अपने दोनों रात बितायी और निर्मल प्रभात होनेपर एकाग्रचित्त हो हाथोंसे पकड़कर भगवान् शङ्कर उनके कानों में तारक मणिकर्णिकाके जलमें नान किया। सारा अनुष्ठान पूरा ब्रह्मका उपदेश देते हैं। कपिलदेवजीके बताये हुए करके नियमोंका पालन करते हुए पवित्र हो वेदयोगानुष्ठानसे, सांख्यसे तथा व्रतोंके द्वारा भी मनुष्योंको वेदाङ्गोंके पारगामी महात्मा ब्राह्मणोंके साथ अपने जिस गतिकी प्राप्ति नहीं होती, उसे यह मोक्षभूमि नामसे एक शिवलिङ्गकी स्थापना की, जो सब प्रकारको काशीपुरी अनायास ही प्रदान करती है। यह काशीकी सिद्धियोंको देनेवाला है। उनकी चारों माताओंने भी