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अर्चयस्व वीकेश यदीच्छसि परं पदम्.
[संक्षिप्त परापुराण
मृगङ्गके पुत्र मकण्डु मुनिकी काशी-यात्रा, काशी-माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
वसिष्ठजी कहते हैं-इस प्रकार गृहस्थाश्रममें हुई। पिताने अपने सभी पुत्रोंसे पर्याप्त दक्षिणावाले निवास करते हुए महामुनि मृगशृङ्गकी पत्नी सुवृत्ताने यज्ञोंका अनुष्ठान करवाया। वे सभी पुत्र सेवा-शुश्रूषामें समयानुसार एक पुत्रको जन्म दिया। इसके द्वारा पितृ- संलग्न हो प्रतिदिन पिताका प्रिय करते थे। उत्तम ऋणसे छुटकारा पाकर मुनिश्रेष्ठ मृगङ्गने अपनेको लक्षणोंवाली पुत्रवधुओं, वेदोंके पारगामी कल्याणमय कृतार्थ माना और विधिपूर्वक नवजात शिशुका जातकर्म- पुत्रों तथा उत्तम गुणोंवाली धर्मपत्रियोंसे सेवित हो संस्कार किया। वे परम बुद्धिमान् मुनि तीनों कालकी मृगशृङ्ग मुनि गृहस्थधर्मका पालन करने लगे। सुमति, बातें जानते थे; अतः उन्होंने पुत्रके भावी कर्मके अनुसार उत्तम तथा महात्मा सुव्रतको भी पृथक्-पृथक् अनेक पुत्र उसका मृकण्डु नाम रखा। उसके शरीरमें मृगगण निर्भय हुए, जो वेदोंके पारगामी विद्वान्'थे। माघ मास आनेपर होकर कण्डूयन करते थे- अपना शरीर खुजलाते या मुनिवर मृगशृङ्ग अपनी धर्मपत्नियों, पुत्रवधुओं, पुत्रों रगड़ते थे। इसीलिये पिताने उसका नाम मृकण्डु रख तथा पौत्रोंके साथ प्रातःकाल स्नान करते थे। वे एक दिया। मृकण्डु मुनि उत्तम कुलमें उत्पन्न होकर समस्त माघ भी कभी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। माघ आनेपर गुणोंके भंडार बन गये थे। उनका शरीर प्रज्वलित स्नान, दान, शिवकी पूजा, व्रत और नियम-ये गृहस्थअग्निके समान तेजस्वी था। पिताके द्वारा उपनयन- आश्रमके भूषण हैं। यह सोचकर वे द्विजश्रेष्ठ प्रत्येक संस्कार हो जानेपर वे ब्रह्मचर्यका पालन करने लगे। माघमें प्रातःस्रान किया करते थे। इस प्रकार सांसारिक उन्होंने पिताके पास रहकर सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन सुख-सौभाग्यका अनुभव करके उन महामुनिने अपनी किया। तत्पश्चात् गुरु (पिता) की आज्ञा ले द्वितीय धर्मपत्नियोंका भार पुत्रोंको सौंप दिया और गार्हपत्य आश्रमको स्वीकार किया। मुद्गल मुनिकी कन्या अनिको अपने आत्मामें स्थापित कर लिया। फिर पुत्रके मरुद्वतीके साथ मुकण्डु मुनिका विवाह हुआ। तदनन्तर पुत्रका मुख देख और अपने शरीरको अत्यन्त जराग्रस्त मृगशृङ्ग मुनिकी दूसरी पत्नी कमलाने भी एक उत्तम पुत्र जानकर तपोनिधि मृगशङ्गने तपस्या करनेके लिये उत्पत्र किया। वह सदाचार, वेदाध्ययन, विद्या और तपोवनको प्रस्थान किया। वहाँ पत्ते चबाने, छोटे-छोटे विनयमें सबसे उत्तम निकला; इसलिये उसका नाम तालाबोंमें जल पीने, संसारसे उद्विग्न होने तथा रेतीली उत्तम रखा गया। पिताके उपनयन-संस्कार कर देनेपर भूमिमें निवास करनेके कारण वे मृगोंके समान धर्मका उत्तम मुनिने भी सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करके पालन करने लगे। मृगोंके झंडमें चिरकालतक विचरण विधिपूर्वक विवाह किया। कमनीय केशकलाप और करनेके पश्चात् उन्होंने ब्रह्मलोक प्राप्त कर लिया। वहाँ मनोहर रूपसे युक्त, कमलके समान विशाल नेत्र तथा चार मुखोंवाले ब्रह्माजीने उनका अभिनन्दन किया। कल्याणमय स्वभाववाली कण्व मुनिकी कन्या कुशाको मुनिवर मृगङ्ग दिव्य सिंहासनपर विराजमान हुए और उन्होंने पत्रीरूपमें ग्रहण किया। विमलाने भी सुमति अपने द्वारा उपार्जित उपमारहित अक्षय लोकोंका सुख नामसे विख्यात पुत्रको जन्म दिया। सुमति भी सम्पूर्ण भोगने लगे। तदनन्तर एक समय प्रलयकालके बाद वेदोंका अध्ययन करके गृहस्थ हुए । उनकी स्त्रीका नाम श्वेतवाराहकल्पमें वे पुनः ब्रह्माजीके पुत्ररूपसे उत्पन्न सत्या था। तत्पश्चात् सुरसाके गर्भसे भी एक पुत्रका जन्म हुए। उस समय उनका नाम ऋभु हुआ और उन्होंने हुआ, जिसका नाम सुव्रत था। सुरसाकुमार सुव्रतने भी निदाघको कल्याणका उपदेश दिया। सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन समाप्त करके द्वितीय आश्रममें शौल और सदाचारसे सम्पन्न उनकी चारों पत्रियाँ प्रवेश किया। पृथुकी पुत्री प्रियंवदा सुव्रतकी धर्मपत्नी पुत्रोंके आश्रयमें रहकर कुछ दिनोंतक कठोर व्रतका