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• अर्चयस्व वीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[ संक्षिप्त परापुराण
मस्तकपर वस्त्र डालकर यत्नपूर्वक मौन रहे । न तो थूके करे। फिर उठकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करे। विज्ञ और न ऊपरको साँस ही खींचे। शौचके स्थानपर ब्राह्मणको उत्तरीय वस्त्र (चादर) सदा ही धारण किये अधिक देरतक न रुके। मलकी ओर दृष्टिपात न करे। रहना चाहिये। आचमनके बाद भस्मके द्वारा ललाटमें अपने शिश्रको हाथसे पकड़े हुए उठे और अन्यत्र जाकर त्रिपुण्ड्र धारण करे अथवा गोपीचन्दन घिसकर आलस्यरहित हो गुदा और लिङ्गको अच्छी तरह धो ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक लगाये। तदनन्तर सन्ध्यावन्दन आरम्भ डाले। किनारेकी मिट्टी लेकर उससे इस प्रकार अङ्गोंकी करके प्राणायाम करे। 'आपो हि ठा.' आदि तीन शुद्धि करे, जिससे मलकी दुर्गन्ध और लेप दूर हो जाय। ऋचाओसे कुशोदकद्वारा मार्जन करे। पूर्वोक्त किसी पवित्र तीर्थमें शौचकी क्रिया (गुदा आदि घोना) ऋचाओंमेसे एक-एकका प्रणवसहित उधारण करके न करे; यदि करना हो तो किसी पात्रमें जल निकालकर जल सींचे। फिर 'सूर्यश्च०' इत्यादि मन्त्रके द्वारा उससे अलग जाकर शौच-कर्म करे । लिङ्गमें एक बार, अभिमन्त्रित जलका आचमन करे। तत्पश्चात् दोनों गुदामें पांच बार तथा यायें हाथमें दस बार मिट्टी लगाये। हाथोंमें जल लेकर उसे गायत्रीसे अभिमन्त्रित करे और दोनों पैरोंमें पाँच-पाँच बार मिट्टी लगाकर धोये। इस सूर्यकी ओर मुंह करके खड़ा हो तीन बार ऊपरको वह प्रकार शौच करके मिट्टी और जलसे हाथ-पैर धोकर जल फेके। इस प्रकार सूर्यको अर्घ्यदान करना चाहिये। चोटी बाँध ले और दो बार आचमन करे। आचमनके प्रातःकालकी सन्ध्या जब तारे दिखायी देते हों, उसी समय हाथ घुटनोंके भीतर होना चाहिये । पवित्र स्थानमें समय विधिपूर्वक आरम्भ करे और जबतक सूर्यका उत्तर या पूरबकी ओर मुँह करके हाथमें पवित्री धारण दर्शन न हो जाय, तबतक गायत्री मन्त्रका जप करता किये आचमन करना चाहिये। इससे पवित्री जूठी नहीं रहे। इसके बाद सविता-देवता-सम्बन्धी पापहारी होती। यदि पवित्री पहने हुए ही भोजन कर ले तो वह मन्त्रोंद्वारा हाथ जोड़कर सूर्योपस्थान करे । सन्ध्याकालमें अवश्य जूठी हो जाती है। उसको त्याग देना चाहिये। गुरुके चरणोंको तथा भूमिदेवीको प्रणाम करे । जो द्विज
तदनन्तर उठकर दोनों नेत्र धो डाले और दत्तधावन श्रद्धा और विधिके साथ प्रतिदिन सन्ध्योपासन करता है, (दातुन) करे। उस समय निम्नाङ्कितं मन्चका उच्चारण उसे तीनों लोकोंमें कुछ भी अप्राप्य नहीं । सध्या समाप्त करना चाहिये
होनेपर आलस्य छोड़कर होम करे । कोई भी दिन खाली आयुर्वलं यशो वर्षः प्रजाः पशुवसूनि च। न जाने दे। प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान करे। ब्रह्मप्रज्ञा च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥ यह दिनके प्रथम भागका कृत्य बतलाया गया।
(२३३ । १७) दूसरे भागमें वेदोका स्वाध्याय किया जाता है । समिधा, वनस्पते ! आप हमें आयु, बल, यश, तेज, फूल और कुश आदिके संग्रहका भी यही समय है। सन्तान, पशु, धन, वेदाध्ययनकी बुद्धि तथा धारणाशक्ति दिनके तीसरे भागमें न्यायपूर्वक कुछ धनका उपार्जन प्रदान करें।
करे। शरीरको केश दिये बिना दैवेच्छासे जो उपलब्ध हो इस मन्त्रका पाठ करके दातुन करे । दातुन काँटेदार सके, उतनेका ही अर्जन करे। ब्राह्मणके छ: कोमसे या दूधवाले वृक्षकी होनी चाहिये। उसकी लंबाई बारह तीन कर्म उसकी जीविकाके साधन है। यज्ञ कराना, वेद अंगुलकी हो और उसमें कोई छेद न हो। मोटाई भी पढ़ाना और शुद्ध आचरणवाले यजमानसे दान लेनाकनिष्ठिका अंगुलीके बराबर होनी चाहिये। रविवारको ये ही उसकी आजीविकाके तीन कर्म है। दिनके चौथे दातुन निषिद्ध है, उस दिन बारह कुल्लोंसे मुखकी शुद्धि भागमें पुनः स्रान करे। [प्रातःकाल सन्ध्या-वन्दनके होती है। तत्पश्चात् आचमन करके शुद्ध हो विधिपूर्वक पश्चात्] कुशके आसनपर बैठे और दोनों हाथोंमें कुश प्रातःस्नान करे। नानके बाद देवता और पितरोंका तर्पण ले अञ्जलि बाँधकर ब्रह्मयज्ञकी पूर्तिके लिये यथाशक्ति