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उत्तरखण्ड ]
स्वाध्याय करे। उस समय ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेदके मन्त्रोंका जप करना चाहिये। फिर देवता, ऋषि और पितरोंका तर्पण करे। देवताओंका तर्पण करते समय यज्ञोपवीतको बायें कंधेपर रखे, ऋषि तर्पणके समय उसे गलेमें मालाकी भाँति कर ले और पितृ तर्पणमें जनेऊको दायें कंधेपर रखे। उन्हें क्रमशः देवतीर्थ, प्रजापतितीर्थ और पितृतीर्थसे ही जल देना चाहिये। इसके बाद सम्पूर्ण भूतोंको जल दे। [ मध्याह्नकालमें] 'आपो हि ष्ठा' इस मन्त्रसे अपने मस्तकको सींचकर 'आपः पुनन्तु' इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित किये हुए जलका आचमन करे। तत्पश्चात् दोनों हाथोंसे जल लेकर गायत्री मन्त्र पढ़ते हुए सूर्यको एक बार अर्घ्य दे। उसके बाद गायत्रीका जप करे। गायत्री मन्त्रद्वारा यथाशक्ति सूर्यका उपस्थान करके उनकी प्रदक्षिणा और नमस्कारके पश्चात् आसनपर बैठे और जलके देवताओंको नमस्कार करके एकाग्रचित्त हो घरको जाय।
मृगशृङ्गका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
इस प्रकार जप यज्ञके अनन्तर देवताओंकी पूजा करे। ब्राह्मणको सूर्य, दुर्गा, श्रीविष्णु, गणेश तथा शिव-इन पाँच देवताओंकी पूजा करनी चाहिये। उसके बाद पञ्चमहायज्ञोंका अनुष्ठान करे। फिर भूतबलि काकबलि और कुकुरबलि आदि देते हुए निम्नाङ्कित मन्त्रका पाठ करे
देवा
प्रेताः
मनुष्याः
पशवो
सिद्धाश्च
पिशाचा उरगा: ये चान्नमिच्छन्ति
वयांसि
यक्षोरगदैत्यसङ्घाः ।
समस्ता
दत्तम् । ( २३३ | ४३)
'देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, सिद्ध, यक्ष, नाग, दैत्य, प्रेत, पिशाच और सब प्रकारके सर्प जो मुझसे अत्र लेनेकी इच्छा रखते हों, वे यहाँ आकर मेरे दिये हुए अत्रको ग्रहण करें।'
मयात्र
यों कहकर सब प्राणियोंके लिये पृथक् पृथक् बलि दे । तत्पश्चात् विधिपूर्वक आचमन करके प्रसन्नचित्त होकर द्वारपर बैठे और बड़ी श्रद्धाके साथ किसी
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अतिथिके आनेकी प्रतीक्षा करे। गोदोहनकालतक प्रतीक्षा करनेके बाद यदि भाग्यवश कोई अतिथि आ जाय तो यथाशक्ति अत्र और जल देकर देवताकी भाँति उसकी भक्तिपूर्वक पूजा करे। संन्यासी और ब्रह्मचारीको विधिपूर्वक सब व्यञ्जनोंसे युक्त रसोईमेंसे, जो अभी उपयोगमें न लायी गयी हो, अत्र निकालकर भिक्षा दे। संन्यासी और ब्रह्मचारी – ये दोनों ही बनी हुई रसोईके स्वामी - प्रधान अधिकारी हैं। संन्यासीके हाथमें पहले जल दे, फिर अन्न दे; उसके बाद पुनः जल दे। ऐसा करनेसे वह भिक्षाका अन्न, मेरुके समान और जल समुद्रके तुल्य फल देनेवाला होता है। जो मनुष्य संन्यासीको सत्कारपूर्वक भिक्षा देता है, उसे गोदानके समान पुण्य होता है—ऐसा भगवान् यमका कथन है। माता, पिता, गुरु, बन्धु, गर्भिणी स्त्री, वृद्ध, बालक और आये हुए अतिथि जब भोजन कर लें, उसके बाद घरका मालिक गृहस्थ पुरुष लिपे पुते पवित्र स्थानमें हाथ-पैर धोकर बैठे और पूर्वाभिमुख होकर भोजन करे। भोजन करते समय वाणीको संयममें रखकर मौन रहे। दोनों हाथ दोनों पैर और मुख-इन पाँचोंको धोकर ही भोजन करना चाहिये। भोजनका पात्र उत्तम और शुद्ध होना चाहिये। अत्रकी निन्दा न करते हुए भोजन करना उचित है। एक वस्त्र धारण करके अथवा फूटे हुए पात्रमें भोजन न करे। जो शुद्ध कॉसके बरतनमें अकेला ही भोजन करता है, उसकी आयु, बुद्धि, यश और बलइन चारोंकी वृद्धि होती है। घी, अन्न तथा सभी प्रकारके व्यञ्जन करछुलसे ही परोसने चाहिये - हाथसे नहीं। भोजनमेंसे पहले कुछ अत्र निकालकर धर्मराज तथा चित्रगुप्तको बलि दे। फिर सम्पूर्ण भूतोंके लिये अन्न देते हुए इस मन्त्रका उच्चारण करे
यत्र
क्वचनसंस्थानां
भूतानां
तृप्तयेऽक्षय्यमिदमस्तु
क्षुत्तृष्णोपहतात्मनाम् ।
यथासुखम् ॥
(२३३ । ५६)
'जहाँ कहीं भी रहकर भूख-प्याससे पीड़ित हुए प्राणियोंकी तृप्तिके लिये यह अत्र और जल प्रस्तुत है; यह उनके लिये सुखपूर्वक अक्षय तृप्तिका साधन हो ।'