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उत्तरखण्ड ]
- मृगङ्गका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ-आश्रमका धर्म .
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तथा मुनीश्वर मृगशृङ्गने भी पहले जिसे मन-ही-मन वरण बलपूर्वक कन्याको हर लाना राक्षस विवाह है। किया था, उस उचथ्य-पुत्री सुवृत्ताके साथ विवाह सत्पुरुषोंने इसकी निन्दा की है। छलपूर्वक कन्याका करनेकी इच्छा की। इसके बाद उन्होंने महर्षि अपहरण करके किये जानेवाले विवाहको पैशाच कहते वेदव्यासजीकी आज्ञासे सुवृत्ता तथा उसकी हैं। यह बहुत ही घृणित है। समान वर्णकी कन्याओके तीनों सखियों-कमला, विमला और सुरसाका साथ विवाहकालमें उनका हाथ अपने हाथमें लेना पाणिग्रहण किया।
चाहिये, यही विधि है। धर्मानुकूल विवाहोंसे सौ वर्षतक श्रुति कहती है-'ब्राह्मणोंके लिये ब्राह्म विवाह जीवित रहनेवाली धार्मिक सन्तान उत्पन्न होती है तथा सबसे उत्तम है।' इसलिये मुनिने उन चारों कन्याओंको अधर्ममय विवाहोंसे जिनकी उत्पत्ति होती है, वे ब्राह्म विवाहकी ही रीतिसे ग्रहण किया । इस प्रकार विवाह भाग्यहीन, निर्धन और थोड़ी आयुवाले होते हैं; अतः हो जानेपर मुनिवर वत्सने समस्त ऋषियोंको मस्तक ब्राह्मणोंके लिये ब्राह्म विवाह ही श्रेष्ठ है। झुकाया तथा वे मुनीश्वर भी वर-वधूको आशीर्वाद दे इस प्रकार मुनीश्वर मृगशृङ्ग विधिपूर्वक विवाह उनसे पूछकर अपनी-अपनी कुटीमें चले गये। करके वेदोक्त मार्गसे भलीभाँति गार्हस्थ्य-धर्मका पालन
राजा दिलीपने पूछा-गुरुदेव वसिष्ठजी ! चारों करने लगे। उनकी गृहस्थीके समान दूसरे किसीकी वोंक विवाह कितने प्रकारके माने गये हैं? यह बात गृहस्थी न कभी हुई है, न होगी। सुवृत्ता, कमला, यदि गोपनीय न हो तो मुझे भी बताइये।
विमला और सुरसा-ये चारों पलियाँ पातिव्रत्य धर्ममें वसिष्ठजी बोले-राजन् ! सुनो, मैं क्रमशः तत्पर हो सदा पतिकी सेवामें लगी रहती थीं। उनके तुमसे सभी विवाहोंका वर्णन करता हूँ। विवाह आठ सतीत्वकी कहीं तुलना नहीं थी। इस प्रकार वे धर्मात्मा प्रकारके हैं—ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, मुनि उन धर्मपलियोंके साथ रहकर भलीभाँति धर्मका गान्धर्व, राक्षस और पैशाच । जहाँ वरको बुलाकर वस्त्र अनुष्ठान करने लगे।
और आभूषणोंसे विभूषित कन्याका [विधिपूर्वक] दान राजा दिलीपने पूछा-मुनिवर ! पतिव्रताका किया जाता है, वह ब्राह्म विवाह कहलाता है। ऐसे क्या लक्षण है? तथा गृहस्थ-आश्रमका भी क्या लक्षण विवाहसे उत्पन्न होनेवाला पुत्र इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार है? मैं इस बातको जानना चाहता हूँ। कृपया बताइये। करता है। यज्ञ करनेके लिये ऋत्विजको जो कन्या दो वसिष्ठजी बोले-राजन् ! सुनो, मैं जाती है, वह दैव विवाह है। उससे उत्पन्न होनेवाला पुत्र गृहस्थाश्रमका लक्षण बतलाता हूँ। सदाचारका पालन चौदह पीढ़ियोंका उद्धार करता है। वरसे दो बैल लेकर करनेवाला पुरुष दोनों लोक जीत लेता है। ब्राह्म मुहूर्तमें जो कन्याका दान किया जाता है, वह आर्ष विवाह है। शयनसे उठकर पहले धर्म और अर्थका चिन्तन करे। उससे उत्पन्न हुआ पुत्र छः पीढ़ियोंका उद्धार करता है। फिर अर्थोपार्जनमें होनेवाले शारीरिक क्लेशपर विचार 'दोनों एक साथ रहकर धर्मका आचरण करें' यों कहकर करके मन-ही-मन परमेश्वरका स्मरण करे। धनुषसे जो किसी मांगनेवाले पुरुषको कन्या दी जाती है, वह छूटनेपर एक बाण जितनी दूततक जाता है, उतनी दूरकी प्राजापत्य विवाह कहलाता है। उससे उत्पन्न हुआ पुत्र भूमि लाँधकर घरसे दूर नैर्ऋत्य कोणकी ओर जाय और भी छ: पीढ़ियोंका उद्धार करता है। ये चार विवाह वहाँ मल-मूत्रका त्याग करे। दिनको और सन्ध्याके ब्राह्मणोंके लिये धर्मानुकूल माने गये हैं। जहाँ धनसे समय कानपर जनेऊ चढ़ाकर उत्तरकी ओर मुँह करके कन्याको खरीदकर विवाह किया जाता है, वह आसुर शौचके लिये बैठना चाहिये और रात्रिमें दक्षिण दिशाकी विवाह है। वर और कन्यामें परस्पर मैत्रीके कारण जो ओर मुँह करके मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये। विवाह-सम्बन्ध स्थापित होता है, उसका नाम गान्धर्व है। मलत्यागके समय भूमिको तिनकेसे हैक दे और अपने