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पातालखण्ड ]• सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी पूर्छा; वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म.
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देख लक्ष्मणजी पुनः दुःखमें डूब गये और वस्त्रके लिये मन्द-मन्द वायु चलने लगी तथा हाथी भी अपनी अग्रभागसे पंखा झलने लगे। जब होशमें आयीं, तब सँडोमें जल लिये सब ओरसे वहाँ आकर खड़े हो गये, उन्हें प्रणाम करके वे बोले- 'देवि ! अब मैं श्रीरामके पास जाता हूँ, वहाँ जाकर मैं आपका सब संदेश कहूँगा। आपके समीप ही महर्षि वाल्मीकिका बहुत बड़ा आश्रम है।' यों कहकर लक्ष्मणने उनको परिक्रमा की
और दुःखमग्न हो आँसू बहाते हुए ये महाराज श्रीरामके पास चल दिये। जानकोजीने जाते हुए देवरको ओर विस्मित दृष्टिसे देखा। वे सोचने लगी-'महाभाग
बर
मानो धूलिसे भरे हुए सीताके शरीरको धोनेके लिये आये हो। इसी समय सती सीता होशमें आयीं और बारम्बार राम-रामकी रट लगाती हुई बड़े दुःखसे विलाप करने लगीं-'हा राम ! हा दीनबन्धो !! हा करुणानिधे !!! बिना अपराधके ही क्यों मुझे इस वनमें त्याग रहे हो।' इस प्रकारको बहुत-सी बातें कहती हुई वे बार-बार
विलाप करती और इधर-उधर देखती हुई रह-रहकर लक्ष्मण मेरे देवर हैं, शायद परिहास करते हो; भला, मूर्छित हो जाती थीं। उस समय भगवान् वाल्मीकि श्रीरघुनाथजी अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मुझ शिष्योंके साथ वनमें गये थे। वहां उन्हें करुणाजनक पापरहित पत्नीको कैसे त्याग सकते हैं।' यही विचार स्वरमें विलाप और रोदन सुनायी पड़ा। वे शिष्योंसे करती हुई वे निर्निमेष नेत्रोंसे उनकी ओर देखती रहीं; बोले-'वनके भीतर जाकर देखो तो सही, इस महाघोर किन्तु जब वे गङ्गाके उस पार चले गये, तब उन्हें सर्वथा जंगलमे कौन रो रहा है? उसका स्वर दुःखसे पूर्ण जान विश्वास हो गया कि सचमुच ही मैं त्याग दी गयी। अब पड़ता है।' मुनिके भेजनेसे वे उस स्थानपर गये, जहाँ मेरे प्राण बचेंगे या नहीं, इस संशयमें पड़कर वे पृथ्वीपर जानकी राम-रामकी पुकार मचाती हुई आँसुओंमें डूब गिर पड़ों और तत्काल उन्हें मूने आ दवाया। रही थीं। उन्हें देखकर वे शिष्य उत्कण्ठावश वाल्मीकि
उस समय हंस अपने पंखोंसे जल लाकर सीताके मुनिके पास लौट गये। उनकी बातें सुनकर मुनि स्वयं ही शरीरपर सब ओरसे छिड़कने लगे। फूलोंकी सुगन्ध उस स्थानपर गये। पतिव्रता जानकीने देखा एक महर्षि