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पातालखण्ड ]
. दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुखको युगल-मन्त्रकी प्राप्ति •
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दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल-मन्त्रकी प्राप्ति
शिवजी कहते हैं-नारद ! अब मैं दीक्षाकी सेवाके लिये इच्छुक, गुरुका नितान्त भक्त तथा मुमुक्षु यथार्थ विधिका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर सुनो। इस होना चाहिये। जिसमें ऐसी योग्यता हो, वही शिष्य विधिका अनुष्ठान न करके केवल श्रवण मात्रसे भी कहलाता है। प्रेमपूर्ण हृदयसे भगवान् श्रीकृष्णको मनुष्य भव-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। विद्वान् पुरुष इस साक्षात् सेवाका जो अवसर मिलता है, उसीको वेदबातको समझ ले कि साधारण कीटसे लेकर ब्रह्माजीतक वेदाङ्गका ज्ञान रखनेवाले विद्वानोंने मोक्ष कहा है।* यह सम्पूर्ण जगत् नश्वर है; इसमें आध्यात्मिक, शिष्यको चाहिये कि वह गुरुके चरणोंकी शरणमें
आधिदैविक तथा आधिभौतिक-इन तीन प्रकारके जाकर उनसे अपना वृत्तान्त निवेदन करे तथा गुरुको दुःखोंका ही अनुभव होता है। यहाँके जितने सुख हैं, वे उचित है कि वे अत्यन्त प्रसन्न होकर बारम्बार समझाते सभी अनित्य है; अतः उन्हें भी दुःखोंकी ही श्रेणी में रखे। हुए शिष्यके सन्देहोंका निराकरण करें, तत्पश्चात् उसे फिर विरक्त होकर उनसे अलग हो जाय और संसार- मन्त्रका उपदेश दें। चन्दन या मिट्टी लेकर शिष्यकी बन्धनसे छूटनेके लिये उपायोंका विचार करे; साथ ही बायीं और दाहिनी भुजाओंके मूल-भागमें क्रमशः शङ्ख सर्वोत्तम सुखकी प्राप्तिके साधनोंको भी सोचे तथा पूर्ण और चक्रका चिह्न अङ्कित करें। फिर ललाट आदिमें शान्त बना रहे। नाना प्रकारके कर्मोका ठीक-ठीक विधिपूर्वक ऊर्ध्वपुण्ड्र लगायें। तदनन्तर पहले बताये सम्पादन बहुत कठिन है, ऐसा समझकर परम बुद्धिमान् हुए दोनों मन्त्रोंका शिष्यके दाहिने कानमें उपदेश करें पुरुषको चाहिये कि वह अत्यन्त चिन्तित होकर तथा क्रमशः उन मन्त्रोंका अर्थ भी उसे अच्छी तरह श्रीगुरुदेवकी शरणमें जाय। जो शान्त हों, जिनमें समझा दें। फिर यत्नपूर्वक उसका कोई नूतन नाम रखें, मात्सर्यका नितान्त अभाव हो, जो श्रीकृष्णके अनन्य जिसके अन्तमें 'दास' शब्द जुड़ा हो। इसके बाद विद्वान् भक्त हो, जिनके मनमें श्रीकृष्ण-प्राप्तिके सिवा दूसरी कोई शिष्य प्रेमपूर्वक वैष्णवोंको भोजन कराये तथा अत्यन्त कामना न हो, जो भगवत्कृपाके सिवा दूसरे किसी भक्ति के साथ वस्त्र और आभूषण आदिके द्वारा श्रीगुरुका साधनका भरोसा न करते हों, जिनमें क्रोध और लोभ पूजन करे। इतना ही नहीं, अपने शरीरको भी गुरुकी लेशमात्र भी न हो, जो श्रीकृष्णरसके तत्त्वज्ञ और सेवामें समर्पित कर दे। श्रीकृष्णमन्त्रकी जानकारी रखनेवालोंमें श्रेष्ठ हो, जिन्होंने नारद ! अब मैं तुम्हें शरणागत पुरुषोंके धर्म बताना श्रीकृष्णमन्त्रका ही आश्रय लिया हो, जो सदा मन्त्रके चाहता हूँ, जिनका आश्रय लेकर कलियुगके मनुष्य प्रति श्रद्धा-भक्ति रखते हों, सर्वदा पवित्र रहते हो, भगवान्के धाममे पहुँच जायेंगे। ऊपर बताये अनुसार प्रतिदिन सद्धर्मका उपदेश देते और लोगोंको सदाचारमें गुरुसे मन्त्रका उपदेश पाकर गुरु-भक्त शिष्य प्रतिदिन प्रवृत्त करते हों, ऐसे कृपालु एवं विरक्त महात्मा ही गुरु गुरुकी सेवामें संलग्न हो अपने ऊपर उनकी पूर्ण कृपा कहलाते हैं। शिष्य भी ऐसा होना चाहिये, जिसमें प्रायः समझे। तदनन्तर सत्पुरुषोंके, उनमें भी विशेषतः उपर्युक्त गुण मौजूद हो। इसके सिवा उसे गुरुचरणोंकी शरणागतोके धर्म सीखे और वैष्णवोंको अपना इष्टदेव
* शान्तो विमत्सरः कृष्णे भक्तोऽनन्याप्रयोजनः । अनन्यसाधनः श्रीमान् क्रोधलोभक्विर्जितः ॥ श्रीकृष्णरसतत्त्वज्ञः कृष्णमविदां वरः । कृष्णमन्वाश्रयो नित्यं मन्त्र भक्तः सदा शुचिः ।। सद्धर्मशासको नित्यं सदाचारनियोजकः । सम्प्रदायी कृपापूर्णो विरागी गुरुरुध्यते ॥ एवमादिगुणः प्रायः शुश्रूष्णुरुपादयोः । गुरौ नितान्तभक्तश्च मुमुक्षः शिष्य उच्यते ।। पत्साक्षात्सेवनं तस्य प्रेम्णा भगवतो भवेत् । स मोक्षः प्रोच्यते प्रावेदवेदाङ्वेदिभिः ॥ (८२।६-१०)