Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 837
________________ उत्तरखण्ड ] . • श्रीमद्भगवद्रीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य • ८३७ tite चरणोंमें प्रणाम करके राजकुमार चुपचाप हाथ जोड़ खड़े मैंने रख छोड़ा है। साधुश्रेष्ठ ! आप उन्हें पुनः जीवित हो गये। तब ब्राह्मणने कहा-'तुम्हें माताजीने यहाँ कर दीजिये। भेजा है। अच्छा, देखो; अब मैं तुम्हारा सारा अभीष्ट यह सुनकर महामुनि ब्राह्मणने किश्चित् मुसकराकर कार्य सिद्ध करता हैं।' यों कहकर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणने कहा-'चलो, जहाँ यज्ञमण्डपमें तुम्हारे पिता मौजूद है, सब देवताओंको वहीं खींचा। राजकुमारने देखा, उस चलें।' तब सिद्धसमाधिने राजकुमारके साथ वहाँ जाकर समय सब देवता हाथ जोड़े थरथर काँपते हुए वहाँ जल अभिमन्त्रित किया और उसे उस शवके मस्तकपर उपस्थित हो गये। तब उन श्रेष्ठ ब्राह्मणने समस्त रखा। उसके रखते ही राजा सचेत होकर उठ बैठे। फिर देवताओंसे कहा-'देवगण ! इस राजकुमारका अश्व, उन्होंने ब्राह्मणको देखकर पूछा-'धर्मस्वरूप ! आप जो यज्ञके लिये निश्चित हो चुका था, रातमें देवराज कौन हैं?' तब राजकुमारने महाराजसे पहलेका सारा इन्द्रने चुराकर अन्यत्र पहुंचा दिया है; उसे शीघ्र हाल कह सुनाया। राजाने अपनेको पुनः जीवन-दान ले आओ।' देनेवाले ब्राह्मणको नमस्कार करके पूछा-'ब्रह्मन् ! तब देवताओंने मुनिके कहनेसे यज्ञका घोड़ा लाकर किस पुण्यसे आपको यह अलौकिक शक्ति प्राप्त हुई दे दिया। इसके बाद उन्होंने उन्हें जानेकी आज्ञा दी। है?' उनके यो कहनेपर ब्राह्मणने मधुर वाणीमें कहादेवताओंका आकर्षण देखकर तथा खोये हुए अश्वको 'राजन् ! मैं प्रतिदिन आलस्यरहित होकर गीताके बारहवें पाकर राजकुमारने मुनिके चरणोंमें प्रणाम करके कहा- अध्यायका जप करता हूँ, उसीसे मुझे यह शक्ति मिली 'महर्षे ! आपका यह सामर्थ्य आश्चर्यजनक है । आप ही है, जिससे तुम्हें जीवन प्राप्त हुआ है।' यह सुनकर ऐसा कार्य कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं । ब्रह्मन् ! मेरी ब्राह्मणोंसहित राजाने उन ब्रह्मर्षिसे गीताके बारहवें प्रार्थना सुनिये, मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेध यज्ञका अध्यायका अध्ययन किया। उसके माहात्म्यसे उन अनुष्ठान आरम्भ करके दैवयोगसे मृत्युको प्राप्त हो गये सबकी सद्गति हो गयी। दूसरे-दूसरे जीव भी उसके हैं। अभीतक उनका शरीर तपाये हुए तेलमें सुखाकर पाठसे परम मोक्षको प्राप्त हो चुके हैं। "श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य - श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! अब तेरहवें सम्बन्ध रखनेवाले जितने लोग घरपर आते, उन सबको अध्यायकी अगाध महिमाका वर्णन सुनो । उसको सुननेसे डाँट बताती और स्वयं कामोन्मत्त होकर निरन्तर तुम बहुत प्रसन्न होओगी । दक्षिण दिशामें तुङ्गभद्रा नामकी व्यभिचारियोंके साथ रमण किया करती थी। एक दिन एक बहुत बड़ी नदी है। उसके किनारे हरिहरपुर नामक नगरको इधर-उधर आते-जाते हुए पुरवासियोंसे भरा देख रमणीय नगर बसा हुआ है। वहाँ साक्षात् भगवान् हरिहर उसने निर्जन एवं दुर्गम वनमें अपने लिये सङ्केतस्थान बना विराजमान हैं, जिनके दर्शनमात्रसे परम कल्याणकी प्राप्ति लिया। एक समय रातमें किसी कामीको न पाकर वह होती है। हरिहरपुरमें हरिदीक्षित नामक एक श्रोत्रिय घरके किवाड़ खोल नगरसे बाहर सङ्केतस्थानपर चली ब्राह्मण रहते थे, जो तपस्या और स्वाध्यायमें संलग्र तथा गयी। उस समय उसका चित्त कामसे मोहित हो रहा था। वेदोंके पारगामी विद्वान् थे। उनके एक खी थी, जिसे लोग वह एक-एक कुंजमें तथा प्रत्येक वृक्षके नीचे जा-जाकर दुराचारा कहकर पुकारते थे। इस नामके अनुसार ही किसी प्रियतमकी खोज करने लगी; किन्तु उन सभी उसके कर्म भी थे। वह सदा पतिको कुवाच्य कहती थी। स्थानोंपर उसका परिश्रम व्यर्थ गया। उसे प्रियतमका उसने कभी भी उनके साथ शयन नहीं किया। पतिसे दर्शन नहीं हुआ। तब वह उस वनमें नाना प्रकारकी बातें

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