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TO REST REST उत्तरखण्ड ]
PARMANNIFER
इन्द्रप्रस्थके द्वारका आदि तीथोंका माहात्य -
देशमें काला साँप हुआ। एक ब्राह्मण अपने माता पिताकी हड्डियाँ गङ्गाजीमें डालनेके लिये एक पेटीमें रखकर लाया था और वह कुछ साधुओंके दलके साथ वहीं आकर ठहरा, जहाँ साँप रहता था। रातको साँप उस पेटीमें घुस गया और पेटीके साथ वह भी कोसला तटपर आ पहुँचा। यहाँ पेटी खोली गयी तो साँप निकल भागा; पर लोगोंने उसे मार डाला और मरते ही वह देवशरीर प्राप्त कर दिव्य विमानमें बैठकर आ गया। उसने कहा, 'मैं चण्डक नामक नाई था और ब्रह्महत्याके पापसे पाँच लाख वर्षतक नरककी पीड़ा और बीस हजार वर्षतक सर्पयोनि भोगकर आज इस तीर्थमें मरनेके कारण परम उत्तम देवत्वको प्राप्त हुआ हूँ।'
तीर्थका यह प्रत्यक्ष वैभव देखकर उस ब्राह्मणने भी अपने माता-पिताकी हड्डियोंको इसी तीर्थमें डाल दिया। हड्डियोंके पड़ते ही उसके माता-पिता श्रेष्ठ विमानपर बैठकर दिव्यरूप धारण किये यहाँ आये और अपने पुत्रको आशीर्वाद देते हुए स्वर्गको चले गये। फिर वे सब साधु भी इसी कोसलातीर्थमें रह गये और अन्तमें वैकुण्ठको प्राप्त हुए।
नारदजी कहते हैं - यह परमपावन मधुवनतीर्थ है, यहाँ विश्रान्तिघाट नामक तीर्थ है। एक ब्राह्मण पर्णशाला बनाकर यहाँ भगवान् के दर्शनकी इच्छासे सकुटुम्ब रहते थे। एक दिन तीर्थमें स्नान करते समय भी उन्हें यही अभिलाषा हुई और तत्काल भगवान्ने दर्शन देकर उनको कृतार्थ कर दिया और वे भगवान्की स्तुति करके उन्होंके साथ वैकुण्ठलोकको चले गये ।
इस मधुवनसे ग्यारह धनुषकी दूरीपर एक बदरिकाश्रमतीर्थ है। मगधदेशमें देवदास नामक एक सत्यवादी जितेन्द्रिय और धर्मात्मा ब्राह्मण रहते थे। वे भगवान्के परम भक्त थे। उनके घरमें उत्तमा नामकी गुणवती पतिव्रता पत्नी थी। देवदासके अंगद नामक एक पुत्र और वलया नामकी एक कन्या थी। देवदासने दोनोंका विवाह कर दिया। कन्या विवाहिता होनेपर ससुराल चली गयी और पुत्र अंगदने घरका काम सँभाल लिया। कुछ समय बाद विप्रवर देवदासने अपनी
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पत्नी उत्तमासे परामर्श करके निश्चय किया कि अब इस वृद्धावस्थामें संसारके समस्त विनाशी पदार्थोंसे मन हटाकर इन्द्रिय-संयमपूर्वक हमलोगोंको भगवान्का भजन और तीर्थसेवन करना चाहिये। फिर उन्होंने अपने पुत्र अंगदको बुलाकर भगवान् श्रीहरिकी आराधनाका महत्त्व बतलाते हुए अपना निश्चय सुनाया और पुत्रसे अनुमति पाकर वे दोनों कुछ धन लेकर भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये चल पड़े। रास्तेमें कल्पग्रामके एक सिद्ध पुरुषसे उनकी भेंट हुई। उस सिद्ध पुरुषने इन्द्रप्रस्थके वदरी नामक तीर्थका माहात्म्य सुनाया, जिसमें पूर्वजन्मके व्यभिचार और डकैती आदि पापोंके फलस्वरूप भयंकर भैंसा बने हुए एक राजाका तीर्थमे प्रवेश करते ही उद्धार हो गया था। फिर सिद्ध पुरुषने उन दोनोंसे कहा कि 'यदि तुम भी अपने परमकल्याणकी इच्छा रखते हो, तो वहीं चले जाओ। मैं भी अपने निःस्पृह और मोक्षके इच्छुक बूढ़े पिताको इस वदरिकाश्रम तीर्थमें लानेके लिये घर जा रहा हूँ।' सिद्धकी बात सुनकर धीरबुद्धि ब्राह्मण देवदास तीर्थोंमें घूमते हुए इन्द्रप्रस्थमें आये और यहाँ इस वदरिकाश्रममें भगवान् उन्हें उसी शरीरसे परमधामको ले गये। सिद्ध पुरुषने भी शीघ्र ही अपने पिताको घरसे लाकर उस तीर्थमें नहलवाया। इससे उनको भी भगवान् विष्णुका परमधाम प्राप्त हो गया।
इन्द्रप्रस्थमें हरिद्वार नामक तीर्थ है। इसकी भी बड़ी महिमा है। कुरुक्षेत्रमें नगरसे बाहर कालिङ्ग नामक एक पापी चाण्डाल रहता था। एक बार सूर्यग्रहणके समय आये हुए एक धनी वैश्यके पीछे वह लग गया और कुरुक्षेत्रसे उस वैश्यके लौटनेके समय इसी हरिद्वारमें आधी रातके वक्त उस पापीने वैश्यके खेमेमें चोरी करनेकी चेष्टा की और दो पहरेदारोंको मार डाला। इसी समय वैश्यके एक सेवकने दूरसे बाण मारा, जिससे भागता हुआ वह पापी भी मर गया। तदनन्तर चाण्डालद्वारा मारे हुए वैश्यके दोनों पहरेदार और वह चाण्डाल – तीनों देवताओंके द्वारा लाये हुए विमानपर चढ़कर वैश्यसे बोले— 'देखो इस तीर्थका माहात्म्य !