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उत्तरखण्ड ]
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इन्द्रप्रस्थके द्वारका आदि तीर्थोका माहात्य •
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एक सखी उसकी सेवा करती थी। भाग्यवश कुछ दिनोंमें वह अच्छी हो गयी, पर निर्धनताकी अवस्थामें जरद्रवाके घर रहनेमें उसे बड़ा संकोच हुआ और वह घरसे निकल गयी।
एक दिन मोहिनी वनके मार्गसे जा रही थी। चोरोंने उसके पास धन समझकर लोभसे उसे मार दिया। पर जब धन नहीं मिला, तब वे उसे वनमें ही छोड़कर चल दिये। अभी मोहिनीकी साँस चल रही थी, उसी समय एक वानप्रस्थी महात्मा इस प्रयागके जलको कमण्डलुमें लिये वहाँ आ पहुँचे और तीर्थकी महिमा कहते हुए उन्होंने मोहिनीके मुखमें वह जल डाल दिया। उस समय मोहिनीके मनमें किसी राजाकी महारानी बननेकी इच्छा थीं। मुँहमें प्रयागका जल पड़ते ही मोहिनी मर गयी और दूसरे जन्ममें वह द्रविड़ देशमें राजा वीरवर्माकी हेमाङ्गीनामक महारानी हुई। राजमन्त्रीकी लड़की कला उसकी सखी थी। एक दिन हेमाङ्गी कलाके घर गयी और कलाने एक सोनेकी पेटीमें उसे एक विचित्र पुस्तक दिखायी, जिसमें अवतारोंके चित्रोंके साथ-साथ सारे भूगोलका मानचित्र था। मानचित्र देखते-देखते हेमाङ्गीकी दृष्टि इस प्रयागतीर्थपर पड़ी और उसे तुरंत अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो आया। तदनन्तर उसने घर लौटकर अपने पतिसे पूर्व जन्मकी सारी घटनाएँ सुनाकर प्रार्थना की कि 'नाथ! मैं उस तीर्थ जलके प्रसादसे ही आपके घरकी रानी बनी हूँ। इस समय आपके साथ चलकर इन्द्रप्रस्थके मनोवाञ्छा पूर्ण करनेवाले तीर्थराज प्रयागका दर्शन करना चाहती हूँ। जब मैं उस तीर्थराजके लिये चल पड़ेंगी, तभी अत्र जल ग्रहण करूंगी।' राजाके पूरा विश्वास न करनेपर उसी समय आकाशवाणीने कहा - 'राजन्! तुम्हारी पलीका कथन सत्य है। इन्द्रप्रस्थके परम पवित्र प्रयागतीर्थमें जाकर तुम स्नान करो। इससे तुम्हारी सारी इच्छाएँ पूर्ण हो जायँगी।' तब तो राजा आकाशवाणीको नमस्कार करके मन्त्रीको सारा भार सौंप हेमाङ्गीके साथ चल पड़े और कुछ दिनोंमें इन्द्रप्रस्थके प्रयागमें आ पहुँचे। 'इस प्रयागस्नानके पुण्यसे हमपर भगवान् विष्णु प्रसन्न हो' इस इच्छासे संप०पु० २९
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तीर्थमें स्नान करते ही भगवान् विष्णु और ब्रह्माजी क्रमशः गरुड़ और हंसपर बैठे हुए वहाँ आ पहुँचे। राजा वीरवर्माने मस्तक झुकाकर भगवान्के दोनों स्वरूपोंको प्रणाम किया और एकाग्रचित्तसे उनकी विलक्षण स्तुति की। फिर हेमाङ्गीने उनका स्तवन करके मनोरथ पूर्ण करनेकी प्रार्थना की। भगवान् विष्णु और ब्रह्माजीने प्रसन्न होकर हेमाङ्गीकी बड़ी प्रशंसा की और फिर दोनोंको अपने साथ सत्यलोकमें ले गये।
अब इन्द्रप्रस्थके काशीतीर्थका परम पवित्र तथा यश और आयुको बढ़ानेवाला माहात्म्य सुनो। सत्ययुगमें इन्द्रप्रस्थके काशीतीर्थमें शिंशपाके वृक्षपर एक कौआ रहता था और उसके नीचे खोखलेमें एक बहुत बड़ा साँप। एक दिन आँधी आयी और शिंशपाका वृक्ष उखड़कर गिर पड़ा। उसके नीचे दबकर साँप और कौआ मर गये। फिर तो शिंशपा, कौआ और साँप - तीनों ही दिव्यरूप धारण करके तीन विमानोंपर सवार होकर भगवान् के वैकुण्ठधाममें चले गये । पूर्वजन्ममें वह कौआ कुरुजाङ्गल देशमें श्रवण नामक ब्राह्मण था और एकान्तमें अकेला मिठाइयाँ उड़ाया करता था। वह कालसर्प उसी ब्राह्मणका भाई कुरण्टक था, जो बड़ा नास्तिक, निर्दयी, वेदमार्गको तोड़नेवाला और देवताओंका निन्दक था और वह शिंशपा पेड़ बनी हुई श्रवणकी स्त्री कुण्ठा थी, जो दोनोंके ही दोषोंसे युक्त थी। इसीलिये वह स्थावर बनकर दोनोंका ही आश्रय हुई। इन दोनों भाइयोंने एक दिन किसी पथिककी कुऍमें पड़ी हुई गौको बाहर निकाल दिया था और घर आनेपर कुण्ठाने 'बहुत अच्छा' कहकर उनके कार्यका समर्थन किया था। इसी पुण्यके प्रभावसे इन्द्रप्रस्थके तटपर स्थित काशीमें दुर्लभ मृत्युको पाकर वे तीनों वैकुण्ठको गये।
अब इन्द्रप्रस्थके गोकर्णतीर्थकी महिमा सुनो। यह शिवजीका परम पवित्र क्षेत्र है। इसमें मरनेवाला मनुष्य निस्सन्देह शिवस्वरूप हो जाता है। गोकर्णतीर्थमें मरे हुए मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता।
इन्द्रप्रस्थके किनारे शिवकाशीतीर्थ है। इसमें मरनेवाला भी पुनर्जन्मको नहीं प्राप्त होता यहाँ