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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
यह हरिद्वार पापियोंका भी कल्याण करनेवाला है।' यों इस पुष्करतीर्थक प्रसादसे मैंने दिव्य देह प्राप्त कर ली। कहकर वे स्वर्गलोकको चले गये। दूसरे दिन वैश्यने मैं एक बार बाजारमें किसी अनाथ बालकको मरा अपने दोनों पहरेदारोंके शरीरोंका दाह-संस्कार कराकर देखकर उसे उठाकर गङ्गाजीके सुन्दर तटपर ले गया था उनकी हड्डियाँ हरिद्वारतीर्थमें डलवा दी। इसके और कफन आदिसे ढककर उसका दाह-संस्कार किया परिणामस्वरूप वे दोनों भाग्यवान् स्वर्गसे लौटकर था। उसी पुण्यसे मुझे इस तीर्थकी प्राप्ति हुई। भगवान् विष्णुके परमधाममें चले गये। तदनन्तर धर्मात्मा पुण्डरीकने भाई भरतकी सद्गति देखकर बुद्धिमान् वैश्यने अपने घर जाकर सांसारिक कार्योको अपने हृदयमें अनुमान किया कि यह तीर्थ मनःकामना धर्मपूर्वक करते हुए भगवान्की भक्ति में मन लगाया और पूर्ण करनेवाला है। फिर उन्होंने 'माघभर भगवान् विष्णु अन्तमें इसी वैकुण्ठधामकी प्राप्ति करानेवाले तीर्थमें अपने साक्षात् स्वरूपसे मेरे घरमें पधारकर निवास करें' आकर मृत्युको प्राप्त हुआ।
इस कामनासे पुष्करतीर्थमें स्रान किया। तदनन्तर घर अब इन्द्रप्रस्थके पुष्करतीर्थका माहात्म्य सुनो। लौटकर पौषकी पूर्णिमाके दिन घरको भलीभाँति सजाकर विदर्भ नगरमें मालव नामक एक ब्रह्मवेत्ता, शान्त, उत्सव किया, ब्राह्मणभोजन करवाया और भगवान्का विद्वान्, हरिभक्त, देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और समस्त गुणगान करते हुए जागरण किया। भगवान्के पधारनेकी भूत-प्राणियोंके पोषक ब्राह्मण रहते थे। वे एक समय प्रतीक्षा तो थी ही। दूसरे दिन सचमुच ही भगवान् उसके जब बृहस्पति सिंहराशिपर थे, दान करनेके लिये दस घर पधार गये। पुण्डरीकने आनन्दमग्न होकर आसन, हजार स्वर्णमुद्राएँ साथ लेकर गोदावरी नदीमें स्नान अर्घ्य आदिके द्वारा भगवान्की पूजा की और फिर स्तवन करनेको चले। उन्होंने आधे रुपये अपने पुण्डरीक नामक करके माघभर घरमें निवास करनेके लिये उनसे प्रार्थना भानजेको देनेका विचार किया और आधे अन्यान्य की। भगवान् उसके द्वारा विविध भाँतिसे पूजित होकर श्रोत्रिय ब्राह्मणोंको। गोदावरीके तटपर पहुँचनेके बाद पूरे माघभर उसके घरमें रहे और अन्तमें उसको मालवके बुलाये हुए उनके भानजे पुण्डरीक भी वहीं आ सर्वतीर्थशिरोमणि इन्द्रप्रस्थके पुष्करतीर्थमें लाकर नान गये और उन्होंने अपना आधा धन पुण्डरीकको दे दिया। कराया। बस, उसी समय पुण्डरीकके शरीरसे एक दिव्य पुण्यात्मा पुण्डरीकने अपने धनमेंसे चौथाई भाग ज्योति निकली और वह भगवान् गोविन्दके चरणोंमें प्रसन्नतापूर्वक श्रोत्रिय ब्राह्मणोंको दिया। इसके बाद वे समा गयी। अपने मामा मालवसे उपदेश, आशीर्वाद और सन्देश अब इन्द्रप्रस्थके प्रयागकी महिमा सुनो। नर्मदा प्राप्त करके अपने घरकी ओर लौटे और कुछ दिनों बाद नदीके किनारे माहिष्मतीपुरीमें एक रूप-यौवन-सम्पत्रा, इस कल्याणप्रद तीर्थ में आये । यहाँ आकर अपने छोटे नाच-गानमें निपुण मोहिनी नामकी वेश्या रहती थी। भाई भरतको खूनसे लथपथ और अन्तिम श्वास लेते हुए धनके लोभमें उसने अनेकों महापाप किये थे। पृथ्वीपर पड़ा देखा। कुछ ही देरमें पीड़ासे छटपटाकर वृद्धावस्था आनेपर उसको सुबुद्धि आयी और उसने उसने प्राण त्याग दिये। उसी समय आकाशसे एक अपना धन बगीचे, पोखरे, बावली, कुआँ, देवमन्दिर विमान उतरा और दिव्य देह धारण करके भरत उसपर जा और धर्मशाला बनवाने में लगाया। यात्रियोंके लिये बैठा। फिर उस समय भरतने भाई पुण्डरीकसे भोजन और जगह-जगह जलकी भी व्यवस्था की । एक कहा-'भाईजी ! इस समय मैं तुम्हें मारकर मामाका बार वह बीमार पड़ी। अपना सारा धन ब्राह्मणोंको देना दिया हुआ धन छीननेके लिये आया था और तुम्हारी ही चाहा, पर ब्राह्मणोंके न लेनेपर उसने एक भाग अपने घातमें था। परन्तु आधी रातके समय बाहरसे आये हुए दासियोंको और दूसरा परदेशी यात्रियोंको दे दिया। स्वयं व्यापारियोंके सेवकोंने मुझे चोर समझकर मार दिया । पर निर्धन हो गयी। इस समय जरद्वा नामक मोहिनीकी