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उत्तरखण्ड ]
. मृगपाङ्ग मुनिका भगवानसे वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना •
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करूंगा। मृगशृङ्ग ! तुम मेरी प्रसन्नताके लिये मैं जो सरोवरके तटपर जब तुम तपस्या करनेमें लगे थे, उस आज्ञा हूँ, उसका पालन करो। इस समय तुम्हारे समय जो मृग प्रतिदिन यहाँ पानी पीने आते थे, वे निर्भय ब्रह्मचर्यसे जिस प्रकार ऋषियोंको सन्तोष हुआ है, उसी होकर तुम्हारे शरीरमें अपने सींग रगड़ा करते थे। इसीसे प्रकार तुम यज्ञ करके देवताओंको और सन्तान उत्पन्न श्रेष्ठ महर्षि तुम्हें मृगभङ्ग कहते हैं। आजसे सब लोग करके पितरोंको संतुष्ट करो। मेरे सन्तोषके लिये ये दोनों तुम्हें मृगशृङ्ग ही कहेंगे। कार्य तुम्हें सर्वथा करने चाहिये। अगले जन्ममें तुम यो कहकर सबको सब कुछ प्रदान करनेवाले ब्रह्माजीके पुत्र महाज्ञानी ऋभुनामक जीवन्मुक्त ब्राह्मण भगवान् सर्वेश्वर वहाँ रहने लगे। तदनन्तर मृगशङ्ग मुनिने होओगे और निदाघको वेदान्तवाक्यजन्य ज्ञानका उपदेश भगवान्का पूजन किया और उनकी आज्ञा लेकर वे उस करके पुनः परमधामको प्राप्त होओगे।
पर्वतसे चले गये। संसारका उपकार करनेके लिये मृगङ्ग बोले-देवदेव ! सम्पूर्ण देवताओंद्वारा उन्होंने गृहस्थ-धर्मको स्वीकर करनेका निश्चय किया और वन्दित जगन्नाथ ! आप यहाँ सदा निवास करें और अपने अन्तःकरणमे निरन्तर वे आदिपुरुष कमलनयन सबको सब प्रकारके भोग प्रदान करते रहें। आप सदा भगवान् विष्णुका चिन्तन करने लगे। अपनी जन्मभूमि सब जीवोंको सब तरहकी सम्पत्ति प्रदान करें। भगवन् ! भोजराजनगरमें घर आकर उन्होंने माता और पिताको यदि मैं आपका कृपापात्र हूँ तो यही एक वर, जिसे नमस्कार करके अपना सारा समाचार कह सुनाया। निवेदन कर चुका हूँ, देनेकी कृपा करें। कमलनयन ! माता-पिताके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये। चरणोंमें पड़े हुए भक्तोंका दुःख दूर करनेवाले अच्युत ! उन्होंने पुत्रको छातीसे लगाकर वारंवार उसका मस्तक आप मुझपर प्रसन्न होइये। शरणागतवत्सल ! मैं सँघा और प्रेमपूर्वक अभिनन्दन किया। वत्स अपने आपकी शरणमें आया हूँ।
गुरुको प्रणाम करके फिर स्वाध्यायमें लग गये। पिता, भगवान् विष्णु बोले-मृगशङ्ग ! एवमस्तु, मैं माता और गुरु-तीनोंकी प्रतिदिन सेवा करते हुए सदा यहाँ निवास करूंगा। जो लोग यहाँ मेरा पूजन उन्होंने सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन किया और गुरुको आज्ञा करेंगे, उन्हें सब प्रकारकी सम्पत्ति हाथ लगेगी। ले विधिपूर्वक व्रतनान और उत्सर्गका कार्य पूर्ण किया। विशेषतः जब सूर्य मकर राशिपर हों, उस समय इस तत्पश्चात् महामना मृगशङ्ग अपने पितासे इस प्रकार सरोवरमें स्नान करनेवाले मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो मेरे बोले-'तात ! पुत्रकी उत्पत्तिके लिये पिता और परमपदको प्राप्त होंगे। व्यतीपात योगमें, अयन प्रारम्भ माताको जो क्लेश सहने पड़ते हैं, उनका बदला सौ वर्षोंमें होनेके दिन, संक्रान्तिके समय, विषुव योगमें, पूर्णिमा भी नहीं चुकाया जा सकता; अतः पुत्रको उचित है कि
और अमावास्या तिथिको तथा चन्द्रग्रहण और सूर्य- वह माता-पिता तथा गुरुका भी सदा ही प्रिय करे । इन ग्रहणके अवसरपर यहाँ सान करके यथाशक्ति दान तीनोंके अत्यन्त सन्तुष्ट होनेपर सब तपस्या पूर्ण हो जाती देनेसे और तुम्हारे मुखसे निकले हुए इस स्तोत्रका मेरे है। इन तीनोंकी सेवाको ही सबसे बड़ा तप कहा गया सामने पाठ करनेसे मनुष्य मेरे लोकमें प्रतिष्ठित होगा। है। इनकी आज्ञाका उल्लङ्घन करके जो कुछ भी किया
भगवान् गोविन्दके यों कहनेपर उन ब्राह्मणकुमारने जाता है, वह कभी सिद्ध नहीं होता। विद्वान् पुरुष इन्हीं पुनः प्रणाम किया और भक्तोंके अधीन रहनेवाले तीनोंकी आराधना करके तीनों लोकोपर विजय पाता है। श्रीहरिसे फिर एक प्रश्र किया- 'कृपानिधे ! देवेश्वर ! जिससे इन तीनोंको संतोष हो, वही मनुष्यों के लिये चारों मैं तो कुत्स मुनिका पुत्र वत्स हूँ; फिर मुझे आपने पुरुषार्थ कहा गया है; इसके सिवा जो कुछ भी है, वह मृगशृङ्ग कहकर क्यों सम्बोधित किया ?'
उपधर्म कहलाता है। मनुष्यको उचित है कि वह श्रीभगवान् बोले-ब्रह्मन् ! इस कल्याण- अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए पितासे क्रमशः