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उत्तरखण्ड ] • शरभको पुत्रकी प्राप्ति; शिवशांक पूर्वजन्मकी कथा तथा निगमोशेषकतीर्थकी महिमा .
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शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशर्माके पूर्वजन्मकी कथाका और
निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
शिवशर्मा कहते है-विष्णुशर्मन् ! तदनन्तर सुनी और तबसे वे यहां आकर मोक्ष, कामनासे शरभ वैश्यने अपनी पत्नीके साथ मन्दिरमें जाकर पुत्रकी निगमोद्बोधकतीर्थका सेवन करने लगे। कुछ दिनों बाद कामनासे विधिपूर्वक स्रान करके पुष्प, धूप और दीप उन्हें भयंकर ज्वर हो आया। तब यह समाचार पाकर मैं आदिके द्वारा भक्तिपूर्वक पार्वतीजीका पूजन किया। इस भी यहाँ आ गया। मेरे आनेके बाद तीर्थराजके जलमें प्रकार सात दिनोंतक श्रद्धापूर्वक पूजन करनेके बाद माता आधा शरीर रखे हुए पिताजीको मृत्यु हो गयी। उसी पार्वतीने प्रत्यक्ष दर्शन देकर कहा-'वैश्य ! तुम्हारी समय स्वयं भगवान् विष्णु यहाँ पधारे और पिताजीको सुदृढ़ भक्तिसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। साधो ! तुम जिसके श्रीवैकुण्ठधाममें ले गये। लिये प्रयत्नशील हो, वह पुत्र मैं तुम्हें देती हूँ। अब तुम पिताजीको भगवान् विष्णुका सारूप्य प्राप्त हुआ इन्द्रके खाण्डव वनमें जाओ। विलम्ब न करो। वहाँ देखकर उनका अन्तिम संस्कार करनेके बाद मैं भी परम पुण्यमय इन्द्रप्रस्थ नामक उत्तम तीर्थ है। उस भगवान्का चिन्तन करता हुआ मोक्षकी कामनासे यहीं तीर्थमें बृहस्पतिजीके द्वारा स्थापित किया हुआ रहने लगा। सर्वकामप्रद निगमोरोधकतीर्थ है। उसमें पुत्रकी शिवशर्माकी यह बात सुनकर उसके पुत्र विष्णुशर्माने कामनासे स्रान करो। तुम्हें अवश्य पुत्र प्राप्त होगा।' कहा-'महान् तीर्थमें निवास करनेपर भी आपको फिरसे
देवीके आज्ञानुसार शरभ पत्रीके साथ इस उत्तम जन्म क्यों लेना पड़ा? मुक्ति कैसे नहीं हुई ?' इसके तीर्थमें आये और पुत्रकी इच्छासे उन्होंने यहाँ सान उत्तरमे शिवशर्माने कहा कि एक दिन मैं भगवान्के ध्यानमें किया; फिर ब्राह्मणोंको अन्य उपकरणोसहित सौ गौएँ बैठा था। महर्षि दुर्वासा उसी समय पधारे और मुझे चुप दान की तथा देवता और पितरोका विधिपूर्वक तर्पण देखकर उन्होंने शाप दे दिया कि इस जन्ममें तेरा मनोरथ किया, फिर सात दिन वहाँ रहकर वे घर लौट आये। पूर्ण नहीं होगा।' मेरे बहुत गिड़गिड़ानेपर उन्होंने उसी महीनेमें वैश्यपत्नीको गर्भ रह गया । समयपर मेरा कहा-'अगले जन्ममें ब्राह्मण होकर तुम यहीं मृत्युको जन्म हुआ। मेरे योग्य होनेपर एक दिन पिताजीने प्राप्त होओगे और फिर तुम्हें जन्म नहीं लेना पड़ेगा।' संसारसे विरक्त होकर मुझसे कहा कि 'घर तुम सँभालो; तदनन्तर फिर मैं घर लौट आया और मैंने संसारके समस्त मैं विषय-कामनाओंको छोड़कर श्रीहरिकी भक्ति, तीर्थ- भोगोंको अनित्य मानकर श्रीभगवन्नामकीर्तन और भजन भ्रमण और सत्संगरूपी ओषधिका पान करके संसाररूपी करनेका निश्चय किया। कुछ दिनों बाद गङ्गातटपर मेरी रोगका नाश करूँगा।' इस प्रसंगमें उन्होंने बार-बार मृत्यु हो गयी। दुर्वासाजीके कथनानुसार वैष्णव विषयासक्तिकी निन्दा और भगवद्भक्तिकी प्रशंसा की। ब्राह्मणकुलमें मेरा जन्म हुआ। अब इस उत्तम तीर्थमें
मैंने श्रीगङ्गाजीकी प्रशंसा करते हुए पिताजीसे मृत्युको प्राप्त होकर मैं श्रीहरिके वैकुण्ठधाममें जाऊँगा। प्रार्थना की कि अपने समीप ही श्रीगङ्गाजी बहती हैं, इन्हें नारदजी कहते है-राजा शिवि ! इस प्रकार छोड़कर आप अन्यत्र न जाइये। पिताजी मेरी बात अपने-अपने पूर्वजन्मके कोका वर्णन करके वे दोनों मानकर घरपर ही रह गये; वे प्रतिदिन तीनों समय पिता-पुत्र श्रीहरिके चरणकमलोंका चिन्तन करते हुए यहाँ श्रीगङ्गाजीमें स्रान करते और पुराणोंकी कथा सुनते रहने लगे और अन्तमें दोनोंने भगवान्के समान रूप प्राप्त रहते। एक दिन उन्होंने इन्द्रप्रस्थ तीर्थकी बड़ी महिमा कर लिया।