________________
८७८
. अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पद्मपुराण
H
महर्षिके धार्मिक कृत्योंमें भी कोई बाधा नहीं पड़ेगी और उसका पूजन किया। महाराजके मुखको प्रसन्न देखकर तुम्हारे भोजनका भी काम चल जायगा। साथ ही गो- रानीको कार्य-सिद्धिका निश्चय हो गया। वह समझ गयौ रक्षाके लिये प्राणत्याग करनेसे मेरी भी उत्तम गति होगी।' कि जिसके लिये यह यत्न हो रहा था, वह उद्देश्य सफल
यह सुनकर सिंह मौन हो गया। धर्मज्ञ राजा दिलीप हो गया । तदनन्तर वे दोनों पति-पत्नी विधिवत् पूजित हुई उसके आगे नीचे मुँह किये पड़ गये। वे सिंहके द्वारा गौके साथ अपने गुरु वसिष्ठजीके सामने उपस्थित हुए। होनेवाले दुःसह आघातकी प्रतीक्षा कर रहे थे कि उन दोनोंके मुख-कमल प्रसन्नतासे खिले हुए देखकर अकस्मात् उनके ऊपर देवेश्वरोद्वारा की हुई फूलोकी वृष्टि ज्ञानके भण्डार मुनिवर वसिष्ठजी उन्हें प्रसन्न करते हुए होने लगी। फिर, 'बेटा ! उठो।' यह वचन सुनकर राजा बोले-'राजन् ! मुझे मालूम हो गया कि यह गौ तुम दिलीप उठकर खड़े हो गये। उस समय उन्होंने माताके दोनोंपर प्रसन्न है; क्योंकि इस समय तुम्हारे मुखकी कान्ति समान सामने खड़ी हुई धेनुको ही देखा। वह सिंह नहीं अपूर्व दिखायी दे रही है। कामधेनु और कल्पवृक्षदिखायी दिया। इससे राजाको बड़ा विस्मय हुआ। तब दोनों ही सबकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं-यह नन्दिनीने नृपश्रेष्ठ दिलीपसे कहा-'राजन् ! मैंने मायासे बात प्रसिद्ध है। फिर उसी कामधेनुकी सन्तानकी सिंहका रूप बनाकर तुम्हारी परीक्षा ली है। मुनिके भलीभाँति आराधना करके यदि कोई सफलमनोरथ हो प्रभावसे यमराज भी मुझे पकड़नेका विचार नहीं ला जाय तो आश्चर्य ही क्या है ? यह पापरहित कामधेनु तथा सकता। तुम अपना शरीर देकर भी मेरी रक्षाके लिये देवनदी गङ्गा दूरसे भी नाम लेनेपर समस्त मनोरथोंको पूर्ण तैयार थे। अतः मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे करती हैं। फिर श्रद्धापूर्वक निकटसे सेवा करनेपर ये अपना अभीष्ट वर माँगो।'
समस्त कामनाएं पूर्ण करें-इसके लिये तो कहना ही क्या राजा बोले-माता ! देहधारियोंके अन्तःकरणमें है। राजन् ! आज इस गौकी पूजा करके रानीसहित यहीं जो बात होती है, वह आप-जैसी देवियोंसे छिपी नहीं रात्रि बिताओ। कल अपने व्रतको विधिपूर्वक समाप्त रहती। आप तो मेरा मनोरथ जानती ही हैं। मुझे वंशधर करके अयोध्यापुरीको जाना।' पुत्र प्रदान कीजिये।
देवलजी कहते हैं-वैश्यवर ! इस प्रकार धेनुकी राजाकी बात सुनकर देवता, पितर, ऋषि और आराधनासे मनोवाञ्छित वर पाकर राजा दिलीप रात्रिमे मनुष्य आदि सब भूतोंका मनोरथ सिद्ध करनेवाली पत्नीसहित आश्रमपर रहे। फिर प्रातःकाल होनेपर गुरुकी नन्दिनीने कहा-'बेटा ! तुम पत्तेके दोनेमे मेरा दूध आज्ञा ले वे राजधानीको पधारे । कुछ दिनोंके बाद राजा दुहकर इच्छानुसार पी लो। इससे तुम्हे अस्त्र-शस्त्रोंके दिलीपके रघु नामक पुत्र हुआ, जिसके नामसे इस तत्त्वको जाननेवाला वंशधर पुत्र प्राप्त होगा। यह सुनकर पृथ्वीपर सूर्यवंशकी ख्याति हुई अर्थात् रघुके बाद वह राजाने कामधेनुकी दौहित्री नन्दिनौसे विनयपूर्वक कहा- वंश 'रघुवंश' के नामसे प्रसिद्ध हुआ । जो भूतलपर राजा 'माता ! इस समय तो मैं आपके मधुर वचनामृतका पान दिलीपकी इस कथाका पाठ करता है, उसे धन-धान्य करके ही तृप्त हूँ, अब आश्रमपर चलकर समस्त धार्मिक और पुत्र की प्राप्ति होती है। शरभ ! तुम भी इस वधूके क्रियाओंके अनुष्ठानसे बचे हुए आपके प्रसादस्वरूप साथ जा श्रेष्ठ पुत्रकी प्राप्तिके लिये अपनी बुद्धिसे दूधका ही पान करूंगा।
आराधना करके पार्वतीजीको प्रसन्न करो। वे तुम्हें .. राजाका यह वचन सुनकर गौको बड़ी प्रसन्नता हुई। पापरहित, गुणवान् एवं वंशधर पुत्र प्रदान करेंगी। उसने 'साधु-साधु' कहकर राजाका सम्मान किया। इस प्रकार शरभसे राजा दिलीपके मनोहर चरित्रका तत्पश्चात् वह उनके साथ आश्रमपर गयी। पूर्व दिनकी वर्णन करके देवल मुनिने उन्हें अम्बिकाके पूजनकी विधि भांति उस दिन भी महारानी सुदक्षिणाने आगे आकर बतायी । इसके बाद वे अपने अभीष्ट स्थानको चले गये।