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उत्तरखण्ड]
. देवल मुनिका शरमको राजा दिलीपकी कथा सुनाना •
होकर यह गौ तुम्हें निश्चय ही पुत्र प्रदान करेगी। किया। उसके करुण-क्रन्दनने धनुर्धर राजाके चित्तमें महाराज ! तुम हाथमें धनुष लेकर वनमें पूरी दयाका सञ्चार कर दिया। उन्होंने देखा, गौका मुख सावधानीके साथ गौको चराओ, जिससे कोई हिंसक आँसुओंसे भीगा हुआ है और उसके ऊपर तीखे दादों जीव इसपर आक्रमण न कर बैठे।' राजाने 'बहुत तथा पंजोंवाला सिंह चढ़ा हुआ है। यह दुःखपूर्ण दृश्य अच्छा' कहकर शीघ्र ही गुरुकी आज्ञा शिरोधार्य की। देखकर राजा व्यथित हो उठे। उन्होंने सिंहके पंजेमें पड़ी
देवलजी कहते हैं-तदनन्तर प्रातःकाल जब हुई गौको फिरसे देखा और तरकससे एक बाण महारानी सुदक्षिणाने फूल आदिसे नन्दिनीकी पूजा कर निकालकर उसे धनुषको डोरीपर रखा और सिंहका वध ली, तब राजा उस घेनुको लेकर वनमें गये । वह गौ जब करनेके लिये धनुषकी प्रत्यञ्चाको खींचा। इसी समय चलने लगती तो राजा भी छायाकी भाँति उसके पीछे- सिंहने राजाकी ओर देखा। उसकी दृष्टि पड़ते ही उनका पीछे चलते थे। जब घास आदि चरने लगती, तब वे सारा शरीर जडवत् हो गया। अब उनमें बाण छोड़नेको भी फल-मूल आदि भक्षण करते थे। जब वह वृक्षोंके शक्ति न रही। इससे वे बहुत ही विस्मित हुए। नीचे बैठती तो वे भी बैठते और जब पानी पीने लगती राजाको इस अवस्थामें देखकर सिंहने उन्हें और भी तो वे भी स्वयं पानी पीते थे। राजा हरी-हरी घास लाकर विस्मयमें डालते हुए मनुष्यकी वाणीमें कहा-'राजन् ! गौको देते, उसके शरीरसे डाँस और मच्छरोको हटाते मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम सूर्यवंशमें उत्पन्न राजा दिलीप तथा उसे हाथोंसे सहलाते और खुजलाते थे। इस प्रकार हो। तुम्हारा शरीर जो जडवत् हो गया है, उसके लिये वे गुरुकी कामधेनु गौके सेवनमें लगे रहे। जब शाम तुम्हें विस्मय नहीं करना चाहिये; क्योंकि इस हिमालयमें हुई, तब वह गौ अपने खुरोंसे उड़े हुए धूलिकणोंद्वारा भगवान् शंकरकी बहुत बड़ी माया फैली है। किसी दूसरे राजाके शरीरको पवित्र करती हुई आश्रमको लौटी। सिंहकी भाँति मुझपर प्रहार करना भी तुम्हारे वशको बात आश्रमके निकट पहुँचनेपर रानी सुदक्षिणाने आगे नहीं है क्योंकि भगवान् शंकर मेरी पोठपर पैर रखकर बढ़कर नन्दिनीकी अगवानी की और विधिपूर्वक पूजा अपने वृषभपर आरूढ़ हुआ करते हैं। अच्छा, अब तुम करके बारंवार उसके चरणोंमें मस्तक झुकाया। फिर लौट जाओ और समस्त पुरुषार्थक साधनभूत अपने गौकी परिक्रमा करके वह हाथ जोड़ उसके आगे खड़ी शरीरकी रक्षा करो। वीर ! इस गौको दैवने मेरे आहारके हो गयी। गौने स्थिर भावसे खड़ी होकर रानीद्वारा लिये ही भेजा है। श्रद्धापूर्वक की हुई पूजाको स्वीकार किया, तत्पश्चात् उन सिंहके 'वीर' सम्वोधनसे युक्त वचन सुनकर दोनों दम्पतिके साथ वह आश्रमपर आयी । इस प्रकार जडवत् शरीरवाले राजा दिलीपने उसे इस प्रकार उत्तर दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले राजा दिलीपके उस दिया-'मृगराज ! हमारे गुरु महर्षि वसिष्ठकी यह गौकी आराधना करते हुए इक्कीस दिन बीत गये। सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाली नन्दिनी नामक धेनु तत्पश्चात् राजाके भक्तिभावकी परीक्षा लेनेके लिये है। गुरुदेवने सन्तान प्राप्तिके उद्देश्यसे इसकी आराधना नन्दिनी सुन्दर घासोंसे सुशोभित हिमालयकी कन्दरामें करनेके लिये इसे मुझको सौंपा है। मैंने अबतक इसकी प्रवेश कर गयी। उस समय उसके हृदयमें तनिक भी भलीभांति आराधना की है। यह छोटे बछड़ेकी माँ है। भय नहीं था। राजा दिलीप हिमालयके सुन्दर शिखरकी तुमने इसे पर्वतकी कन्दरामें पकड़ रखा है। तुम शोभा निहार रहे थे। इतनेमें ही एक सिंहने आकर शंकरजीके सेवक हो, इसलिये तुम्हारे हाथसे बलपूर्वक नन्दिनीको बलपूर्वक धर दबाया। राजाको उस सिंहके इसको छुड़ाना मेरे लिये असम्भव है। अब मेरा यह आनेकी आहटतक नहीं मालूम हुई। सिंहके चङ्गलमें शरीर अपकीर्तिसे मलिन हो चुका । मैं इस गौके बदले फंसकर नन्दिनीने दयनीय स्वरमें बड़े जोरसे चीत्कार अपने शरीरको ही तुम्हें समर्पित करता है। ऐसा करनेसे