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अर्जयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
विधान सब पापोंका निवारण करनेवाला है; इसका इस प्रकार यथावत् पालन करनेसे कल्याणमय श्रीमद्भागवत पुराण मनोवाञ्छित फल प्रदान करता है तथा धर्म, अर्थ काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थोका साधक होता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
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श्रीसनकादि कहते हैं-नारदजी! इस प्रकार तुम्हें यह सप्ताह-श्रवणकी सारी विधि सुना दी। अब और क्या सुनना चाहते हो ? श्रीमद्भागवतसे ही भोग और मोक्ष दोनों हाथ लगते हैं। श्रीमद्भागवत नामक एक कल्पवृक्ष है, जिसका अङ्कुर बहुत ही उज्ज्वल है। सत्स्वरूप परमात्मासे इस वृक्षका उद्गम हुआ है, यह बारह स्कन्धों (मोटी डालियों) से सुशोभित है, भक्ति ही इसका थाहा है, तीन सौ बत्तीस अध्याय ही इसकी सुन्दर शाखाएँ हैं और अठारह हजार श्लोक ही इसके पत्ते हैं। यह सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंको देनेवाला है। इस प्रकार यह भागवतरूपी दिव्य वृक्ष अत्यन्त सुलभ होनेपर भी अपनी अनुपम महत्ताके कारण सर्वोपरि विराजमान है।
सूतजी कहते हैं- ऐसा कहकर सनकादि महात्माओने परम पवित्र श्रीमद्भागवतकी कथा बाँचनी आरम्भ की, जो सब पापोंको हरनेवाली तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। उस समय समस्त प्राणी अपने मनको काबू में रखकर सात दिनोंतक वह कथा सुनते रहे। तत्पश्चात् सबने विधिपूर्वक भगवान् पुरुषोत्तमकी स्तुति की। कथाके अन्तमें ज्ञान, वैराग्य और भक्तिकी पूर्णरूपले पुष्टि की। उन्हें उत्तम तरुण अवस्था प्राप्त हुई, जो समस्त प्राणियोंका मन हर लेनेवाली थी। नारदजी भी अपना मनोरथ सिद्ध हो जानेसे कृतार्थ हो गये, उनके सारे शरीरमें रोमाञ्च हो आया और वे परमानन्दमें निमग्र हो गये। इस प्रकार कथा सुनकर भगवान् के प्रिय भक्त नारदजी हाथ जोड़कर प्रेमपूर्ण गद्गद वाणीमें सनकादि महात्माओंसे बोले'तपोधनो ! आज मैं धन्य हो गया। आप दयालु महात्माओंने मुझपर बड़ा अनुग्रह किया। सप्ताह यज्ञमें श्रीमद्भागवतका श्रवण करनेसे आज मुझे भगवान्
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
श्रीहरि समीपमें ही मिल गये। मैं तो सब धर्मोकी अपेक्षा श्रीमद्भागवत श्रवणको ही श्रेष्ठ मानता हूँ, क्योंकि उसके सुननेसे वैकुण्ठवासी भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्ति होती है।'
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सूतजी कहते हैं - वैष्णवोंमें श्रेष्ठ श्रीनारदजी जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय सोलह वर्षकी अवस्थावाले व्यासपुत्र योगेश्वर श्रीशुकदेव मुनि वहाँ घूमते हुए आ पहुँचे। वे ऐसे जान पड़ते थे मानो ज्ञानरूपी महासागरसे निकले हुए चन्द्रमा हों। वे ठीक कथा समाप्त होनेपर वहाँ पहुँचे थे। आत्मलाभसे परिपूर्ण श्रीशुकदेवजी उस समय बड़े प्रेमसे धीर-धीर श्रीमद्भागवतका पाठ कर रहे थे। उन परम तेजस्वी मुनिको आया देख सारे सभासद् तुरंत ही उठकर खड़े हो गये और उन्हें बैठनेके लिये एक ऊँचा आसन दिया; फिर देवर्षि नारदजीने बड़ी प्रसन्नताके साथ उनका पूजन किया। जब वे सुखपूर्वक आसनपर विराजमान हो गये तो 'मेरी उत्तम वाणी सुनो' ऐसा कहते हुए बोले'भगवत्कथाके रसिक भावुक भक्तजन ! श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्षका पका एवं चूकर गिरा हुआ फल है, जो परमानन्दमय अमृत रससे भरा है। यह श्रीशुकदेवरूप तोतेके मुखसे इस पृथ्वीपर प्राप्त हुआ है; जबतक यह जीवन रहे, जबतक संसारका प्रलय न हो जाय, तबतक आपलोग इस दिव्य रसका नित्यनिरन्तर बारम्बार पान करते रहिये। महामुनि श्रीव्यासजीके द्वारा रचित इस श्रीमद्भागवतमें परम उत्तम निष्काम धर्मका प्रतिपादन किया गया है तथा जिनके हृदयमें ईर्ष्या-द्वेषका अभाव है, उन साधु पुरुषोंके जानने योग्य उस कल्याणप्रद परमार्थ तत्त्वका निरूपण किया गया है, जो आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंका समूल नाश करनेवाला है। इस श्रीमद्भागवतकी शरण लेनेवाले पुरुषोंको दूसरे साधनोंकी क्या आवश्यकता है। जो बुद्धिमान् एवं पुण्यात्मा पुरुष इस पुराणको श्रवण करनेकी इच्छा करते हैं, उनके हृदयमें स्वयं भगवान् ही तत्काल प्रकट होकर सदाके लिये स्थिर हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत समस्त पुराणोंका तिलक और वैष्णव पुरुषोंकी प्रिय वस्तु है। इसमें परमहंस महात्माओंको प्राप्त
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