________________
• अर्जयस्व हषीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पणपुराण
ही विस्तार करते हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं कि आप उपस्थित रहँगा । इन्द्र ! हरिद्वार और पुष्कर नामक जो दो अपने भक्तोंका शोक दूर करनेके लिये ही दयालु हैं- श्रेष्ठ तीर्थ हैं, उनको भी मैं तुम्हारे हितकी कामनासे यहाँ यह उनकी अज्ञता है।
स्थापित करता हैं। नैमिषारण्य, कालञ्जरगिरि तथा राजन् ! इस प्रकार भगवान् केशवकी स्तुति करके सरस्वतीके तटपर भी जितने तीर्थ हैं, उन सबकी मैं यहाँ देवराज इन्द्रने उनके चरणोंमें प्रणाम किया तथा उनका स्थापना करता हूँ। वचन सुननेके लिये वे दत्तचित्त होकर खड़े हो गये। तब नारदजी कहते है-राजा शिबि ! श्रीहरिके ये यज्ञसभामें आये हुए मुनि इन्द्रद्वारा की हुई रमापति कल्याणमय वचन सुनकर सबने वैसा ही किया। अब भगवान् विष्णुको यह स्तुति सुनकर भगवद्भक्तिकी यह स्थान सम्पूर्ण तीर्थोका स्वरूप बन गया, अतः प्रशंसा करते हुए उन्हें साधुवाद देने लगे। देवराज इन्द्रने सुवर्णके यूपोंसे सुशोभित अनेक यज्ञोंद्वारा
नारदजी कहते हैं-मुनियोंद्वारा त्रिलोकीसे पुनः भगवान् लक्ष्मीपतिका यजन किया और भगवान्के अतीत नित्य धामकी प्राप्ति करानेवाली तथा सबके सेवन सामने ही ब्राह्मणोंको रत्नोंके कितने ही प्रस्थ दान किये। करनेयोग्य अपनी भक्तिका समर्थन सुनकर सम्पूर्ण दान देते समय उन्होंने केवल यही उद्देश्य रखा कि जगत्के गुरु भगवान् श्रीहरि उस समाजके भीतर इन्द्रसे मुझपर सर्वात्मा नारायण सन्तुष्ट हों। तभीसे यह तीर्थ मधुर वाणीमें बोले।
इन्द्रप्रस्थ कहलाता है। श्रीभगवान्ने कहा-देवराज ! ये मुनि परम इन्द्रने यहाँ सुवर्ण-यूपोंसे सुशोभित यज्ञोंका शानी हैं। अतः यदि ये मेरी भक्तिको गौरव देते और विधिपूर्वक अनुष्ठान पूर्ण किया और भगवान् विष्णु उसका सत्कार करते हैं तो यह कोई आश्चर्यको बात नहीं आदि देवताओकी पूजा करके उन्हें विदा किया। फिर है; क्योंकि ये तीनों लोकोंमें निवास करनेवाले प्राणियोको ब्रह्माजीके पुत्र वसिष्ठ आदि ऋत्विजोंको धन आदिके उपदेश देनेवाले हैं। ये ही सदा नष्ट हुए वैदिक मार्गको द्वारा सन्तुष्ट करके बृहस्पतिको आगे करके इन्द्र पुनः स्थापित करते हैं। यद्यपि तुम स्वर्गके भोगोंमें स्वर्गलोकको चले गये। राजन् ! वहाँ भगवान्की आसक्त थे, तथापि जो भक्तिपूर्वक मेरी शरणमें आ भक्तिसे युक्त हो इन्द्रने राज्य किया और पुण्य क्षीण गये—इसमें कोई आश्चर्य नहीं है; क्योंकि देवगुरु होनेपर पुनः हस्तिनापुरमें जन्म लिया। बृहस्पति-जैसे महात्मा तुम्हारे गुरु हैं। सुरश्रेष्ठ ! तुम वहाँ शिवशर्मा नामक एक ब्राह्मण थे, जो वेदबहुत-सी दक्षिणावाले यज्ञोंसे मेरा यजन करो, किन्तु वेदाङ्गोंके पारङ्गत विद्वान् थे। उनकी पत्नीका नाम मनमें कोई कामना न रखो। इससे तुम तुरंत ही मेरे गुणवती था। भगवान् विष्णुके सेवक देवराज इन्द्र समीपवर्ती पद-परम धामको प्राप्त होओगे। तुम उसीके गर्भसे उत्पन्न हुए। शिवशर्माने ज्योतिषियोंको प्रत्येक यज्ञमें रत्नोंके अनेक प्रस्थ (ढेर) दान करो; फिर बुलवाया। ज्यौतिषी लग्न देखकर उसका फल बतलाने इसी नामसे यह स्थान इन्द्रप्रस्थ कहलायेगा। लगे-'शिवशर्माजी ! आपका यह बालक भगवान् महादेवजी ! आप यहीं काशी और शिवकाञ्चीकी विष्णुका प्रिय भक्त होगा तथा आपके कुलका उद्धार स्थापना कीजिये और पार्वतीजीके साथ सदा इस तीर्थमं करेगा।' ज्योतिषियोंका यह शान्तिदायक वचन सुनकर निवास कीजिये। बृहस्पतिजी। आप भी यहाँ शिवशर्माने अपने पुत्रका नाम विष्णुशर्मा रखा और उन्हें निगमोद्वोधक तीर्थकी स्थापना कीजिये। यहाँ स्रान धन देकर विदा किया। शिवशर्मा बड़े बुद्धिमान् थे। वे करनेसे पूर्वजन्मको स्मृति और परमात्माका ज्ञान प्राप्त हो। मन-ही-मन सोचने लगे-'मेरा जीवन धन्य है; क्योंकि मैं भी यहाँ परम मनोहर द्वारकापुरी, अयोध्यापुरी, मधुवन मेरा पुत्र भगवान् विष्णुका भक्त होगा।' मनमें ऐसी ही और बदरिकाश्रमकी स्थापना करता हूँ तथा सदा यहाँ बात विचारते हुए शिवशर्माने किसी अच्छे दिनको श्रेष्ठ