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• अर्चपस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ...
[संक्षिप्त पद्मपुराण
क्या आवश्यकता है? अपने सेवकको पाश हाथमें लगाता है, वह वैकुण्ठका स्वामी बन जाता है। लिये देख यमराज उसके कानमें कहते हैं-'देखो, जो शौनकजी ! मैंने समस्त शास्त्र-समुदायका मन्थन करके लोग भगवान्की कथा-वार्ताम मस्त हो रहे हो, उनसे दूर इस समय आपको यह परम गुहा रहस्य सुनाया है। यह ही रहना। मैं दूसरे ही लोगोंको दण्ड देनेमें समर्थ हूँ, समस्त सिद्धान्तोंद्वारा प्रमाणित है। संसारमें वैष्णवोंको नहीं।' इस असार संसारमें विषयरूपी विषके श्रीमद्भागवतकी कथासे अधिक पवित्र और कोई वस्तु सेवनसे व्याकुलचित्त हुए मनुष्यो ! यदि कल्याण चाहते नहीं है, अतः आपलोग परमानन्दकी प्राप्तिके लिये हो तो आधे क्षणके लिये भी श्रीमद्भागवतकथारूपी द्वादशस्कन्धरूप इस सारमय कथामृतका किञ्चित्अनुपम सुधाका पान करो। अरे भाई ! घृणित चर्चासे किञ्चित् पान करते रहिये। जो मनुष्य नियमपूर्वक इस भरे हुए कुमार्गपर क्यों व्यर्थ भटक रहे हो। इस कथाके कथाको भक्तिभावसे सुनता है और जो विशुद्ध वैष्णव कानमें पड़ते ही मुक्ति हो जाती है। मेरे इस कथनमें राजा पुरुषोंके आगे इसे सुनाता है, वे दोनों ही उत्तम विधिका परीक्षित् प्रमाण हैं। श्रीशुकदेवजीने प्रेम-रसके प्रवाहमें पालन करनेके कारण इसका यथार्थ फल प्राप्त करते हैं। स्थित होकर यह कथा कही है। जो इसे अपने कण्ठसे उनके लिये संसारमें कुछ भी असाध्य नहीं है।
यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य-कथा
ऋषियोंने पूछा-सूतजी ! अब आप यमुनाजीके करके वस्त्र पहन चुके तब राजा शिबिने उनके चरणोंमें माहात्म्यका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। साथ ही यह मस्तक रखकर प्रणाम किया। फिर तो वे मुनि भी बात भी बताइये, किसने किसके प्रति इस माहास्यका राजाके साथ ही तटपर विराजमान हो गये। वहाँ उपदेश किया था?
सुवर्णके हजारों यूप दिखायी दे रहे थे। अभिमानरहित सूतजीने कहा-एक समयकी बात है, पाण्डु- राजा शिबिने उन यूपोंपर दृष्टि डालकर देवर्षि नारद और नन्दन युधिष्ठिर सौभरि मुनिसे कल्याणमय ज्ञान सुननेके पर्वतसे पूछा-'मुनिवरो! ये यज्ञ-यूप किनके हैं ? लिये उनके स्थानपर गये और उन्हें नमस्कार करके इस किस देवता अथवा मनुष्यने यहाँ यज्ञ किये हैं? काशी प्रकार पूछने लगे-'ब्रह्मन् ! सूर्यकन्या यमुनाजीके आदि तीर्थोको छोड़कर किस पुरुषने यहाँ यज्ञ किया तटपर जितने तीर्थ हैं उनमें ऐसा कल्याणमय तीर्थ कौन है? अन्य तीर्थोसे यहाँ क्या विशेषता है? इसमें है, जो भगवानकी जन्मभूमि मथुरासे भी बड़ा हो।' कौन-सा विज्ञानका भण्डार भरा हुआ है ? यह बतानेको
सौभरि बोले-एक समय मुनिश्रेष्ठ नारद और कृपा करें।' पर्वत आकाशमार्गसे जा रहे थे। जाते-जाते उनकी दृष्टि नारदजीने कहा-राजन्! पूर्वकालमें परम मनोहर खाण्डव वनपर पड़ी। वे दोनों मुनि हिरण्यकशिपुने जब देवताओंको जीतकर तीनों लोकोका आकाशसे वहाँ उतर पड़े और यमुनाजीके उत्तम तटपर राज्य प्राप्त कर लिया तो उसे बड़ा घमण्ड हो गया। बैठकर विश्राम करने लगे। क्षणभर विश्राम करनेके बाद उसके पुत्र प्रहादजी भगवान् विष्णुके अनन्य भक्त थे; उन्होंने स्नान करनेके लिये जलमें प्रवेश किया। इसी किन्तु वह पापात्मा उनसे सदा द्वेष रखता था। भक्तसे समय उशीनर देशके राजा शिबिने, जो उस वनमें शिकार द्रोह करनेके कारण उसे दण्ड देनेके लिये भगवान् खेलनेके लिये आये थे, उन दोनों मुनियोंको देखा। तब विष्णुने नृसिंहरूप धारण किया और उसका वध करके वे उनके निकलनेकी प्रतीक्षा करते हुए नदीके तटपर बैठ स्वर्गका राज्य इन्द्रको समर्पित कर दिया। अपना स्थान गये। नारद और पर्वत मुनि जब विधिपूर्वक स्रान पाकर इन्द्रने गुरु बृहस्पतिके चरणोंमें मस्तक झुकाकर