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उत्तरखण्ड ]
. निगमोऽध नामक तीर्थकी महिमा-शिवशौक पूर्वजन्यकी कथा .
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ब्राह्मणों के द्वारा शिशुके जात-कर्म आदि संस्कार कराये। पोषण करेगा। हम दोनों श्रीहरिके चरण-कमलोका चिन्तन जब सात वर्ष व्यतीत हो गये और आठवाँ वर्ष आ लगा करते हुए अब यहाँसे चल दें। तब उन्होंने अपने पुत्रका उपनयन-संस्कार किया। इसके श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! ऐसा निश्चय बाद बारह वर्षोंतक उसे अङ्गोसहित वेद पढ़ाये। करके वे दोनों मुमुक्षु पिता-पुत्र अन्धकारपूर्ण आधी तत्पश्चात् शिवशर्माने पुत्रका विवाह कर दिया। बुद्धिमान् रातके समय घरसे चल दिये और घूमते हुए इस परम विष्णुशर्माने अपनी पत्नीसे एक पुत्र उत्पन्न करके अपने कल्याणदायक तीर्थ इन्द्रप्रस्थमें आये। यहाँ अपने विषय-वासनारहित मनको तीर्थयात्रामें लगाया और पूर्वजन्मके किये हुए यज्ञयूपोंको देखकर विष्णुशर्माको पिताके पास जाकर उनके दोनों चरणोंमें प्रणाम किया। श्रीहरिके समागमका स्मरण हो आया। उन्होंने अपने तत्पश्चात् महाप्राज्ञ विष्णुशर्मा इस प्रकार बोले- पितासे कहा-'पिताजी ! मैं पूर्वजन्ममें इन्द्र था। मैंने "पिताजी ! मुझे आज्ञा दीजिये। मैं सत्सङ्ग प्रदान करने- ही भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेकी इच्छासे यहाँ यज्ञ वाले तृतीय आश्रमको स्वीकार करके अब श्रीविष्णुको किये थे। यहीं मेरे ऊपर भक्तवत्सल भगवान् केशव आराधना करूंगा। स्त्री, गृह, धन, सन्तान और सुहृद्- प्रसन्न हुए थे। मैंने रत्नोंके प्रस्थ दान करके यहाँ ब्राह्मणों ये सभी जलमें उठनेवाले बुबुदोंको तरह क्षणभङ्गर हैं; और सप्तर्षियोंको सन्तुष्ट किया था। उन्होंने ही मुझे अतः विद्वान् पुरुष इनमें आसक्त नहीं होता। मैंने वेदोंके विष्णुभक्तिकी प्राप्ति तथा इस जन्ममें मोक्ष होनेका स्वाध्यायसे और सन्तानोत्पत्तिके द्वारा क्रमशः ऋषि-ऋण आशीर्वाद दिया था। इस तीर्थको सर्वतीर्थमय बनाकर
और पितृ-ऋणसे उद्धार पा लिया है। अब तीर्थोंमें इन्द्रप्रस्थ नाम दिया गया था। उन मुनिवरोंने इसी रहकर निष्कामभावसे भगवान् केशवको आराधना करना स्थानपर मेरी मृत्यु होनेकी बात बतायी है और अन्त में चाहता है। गुणमय पदार्थोकी आसक्तिका त्याग करके भगवान के परमधामकी प्राप्ति होनेका आश्वासन दिया है। जबतक प्रारब्ध शेष है, किसी उत्तम तीर्थमें रहनेका ये सब बातें मुझे इस समय याद आ रही हैं। यह विचार करता हूँ।'
निगमोद्बोधक नामक तीर्थ है, जिसे मेरे गुरु बृहस्पतिजीने ... शिवशर्माने कहा-बेटा ! मेरे लिये भी स्थापित किया था। सप्ततीर्थ और निगमोरोध-इन दो अहङ्कारशून्य होकर चतुर्थ आश्रममें प्रवेश करनेका तीर्थोके बीचमें देवताओंने इस इन्द्रप्रस्थनामक महान् समय आ गया है, अतः मैं भी विषयोंको विषकी भाँति क्षेत्रको स्थापना की है। पिताजी ! यह पूर्वसे पश्चिमकी त्यागकर श्रीकेशवरूपी अमृतका सेवन करूंगा। अब ओर एक योजन चौड़ा है और यमुनाके दक्षिण तटपर मेरी वृद्धावस्था आ गयौं, अतः घरमें मेरा मन नहीं चार योजनकी लंबाईमें फैला हुआ है। महर्षियोंने लगता। तुम्हारा छोटा भाई सुशर्मा कुटुम्बका पालन- इन्द्रप्रस्थकी इतनी ही सीमा बतायी है।'
निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा-शिवशर्माके पूर्वजन्यकी कथा
नारदजी कहते हैं-राजन् ! यह बात सुनकर जायें, वह करो। पूर्वजन्ममे किये हुए कार्योंका ज्ञान इस शिवशर्माके मनमें बड़ा सन्देह हुआ और उन्होंने अपने समय तुम्हें कैसे हो रहा है? सत्यवादी पुत्र विष्णुशर्मासे पूछा-'बेटा ! मैं कैसे विष्णुशर्माने कहा-पिताजी ! मुझे ऋषियोंने समझू कि तुम पूर्वजन्ममें देवताओंके राजा इन्द्र थे और पूर्वजन्मको स्मृति बनी रहनेका वरदान दिया है। उन्होंके तुमने ही यज्ञ करके रोंके द्वारा ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट किया मुँहसे इस तीर्थक विषयमें ऐसी महिमा सुनी थी। आप था। तुम्हारी कही हुई बातें जिस प्रकार मेरी समझमें आ यहाँ निगमोद्वोध तीर्थमें स्नान कीजिये । इससे आपको भी