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उत्तरखण्ड ]
. यमुनातटवर्ती इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य-कथा .
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प्रणाम किया और भगवान् नारायणके गुणोंका स्मरण तीनों देवता स्वतः मुझे दर्शन देने पधारे है। विष्णो! करते हुए कहा-'गुरुदेव ! समस्त जगत्का पालन यद्यपि आप एक ही हैं, तो भी सत्त्व आदि गुणोंका करनेवाले नृसिंहरूपधारी श्रीहरिने मुझे पुनः देवताओंका आश्रय लेकर आपने अपने तीन स्वरूप बना लिये हैं। राज्य प्रदान किया है, अतः मैं यज्ञोंद्वारा उनका पूजन इन तीनों ही रूपोंका तीनों वेदोंमें वर्णन है अथवा ये करना चाहता हूँ। इसके लिये आप मुझे पवित्र स्थान तीनों रूप तीन वेदस्वरूप ही हैं। जैसे स्फटिकमणि स्वतः बताइये और योग्य ब्राह्मणोंका परिचय दीजिये। आप उज्ज्वल है, किन्तु भाँति-भांतिके रंगोंके सम्पर्क में आकर हमलोगोंके हितकारी हैं, अतः इस कार्यमें विलम्ब नहीं विविध रंगका जान पड़ता है, उसी प्रकार आप एक करना चाहिये। या
होनेपर भी उपाधिभेदसे अनेकवत् प्रतीत होते हैं। बृहस्पतिजीने कहा-देवराज ! तुम्हारा खाण्डव आपका यह नानात्व स्फटिकमणिके रंगोंकी भाँति मिथ्या वन परम पवित्र और रमणीय स्थान है। वहाँ त्रिभुवनको ही है। प्रभो ! जैसे लकड़ियोंमें छिपी हुई आग रगड़े पवित्र करनेवाली पुण्यमयी यमुना नदी है। यदि तुम बिना प्रकट नहीं होती, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें आत्मीयजनोंका कल्याण चाहते हो तो उसीके तटपर छिपे हुए आप परमात्मा भक्तिसे ही प्रत्यक्ष प्रकट होकर चलकर नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा भगवान् केशवकी दर्शन देते हैं। आप सब प्राणियोंका उपकार करनेवाले आराधना करो।
हैं। आपमें एककी भी भक्ति हो तो अनेकोंको सुख होता गुरु बृहस्पतिके वचन सुनकर देवराज इन्द्र तुरंत है। प्रह्लादजीकी की हुई भक्तिके द्वारा आज सम्पूर्ण देवता गुरु, देवता तथा यज्ञसामग्रीके साथ खाण्डव वनमें सुखी हो गये हैं। देव हम सभी देवता विषय-भोगोंमें ही आये। फिर गुरुकी आज्ञासे ब्रह्मकुमार वसिष्ठ आदि फँसे हैं। हमारे मनपर आपकी मायाका पर्दा पड़ा है, सप्तर्षियों तथा अन्य ब्राह्मणोंका वरण करके इन्द्रने अतः हम आपके स्वरूपको नहीं जानते; उसका यथावत् जगत्पति भगवान् विष्णुका यजन किया। इससे प्रसन्न ज्ञान तो उन्हींको होता है, जो आपके चरणोंके सेवक हैं। होकर भगवान् विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजीके साथ ब्रह्मा और महादेवजी ! आप दोनों भी इस जगत्के गुरु इन्द्रके यज्ञमें पधारे। सरलहृदय इन्द्र तीनो देवताओंको है; यह गुरुत्व भगवान् विष्णुका ही है, इसलिये उपस्थित देख तुरंत आसनसे उठकर खड़े हो गये और आपलोग इनसे पृथक् नहीं हैं। वाणीसे जो कुछ भी कहा मुनियोंके साथ उनके चरणोंमे प्रणाम किया। फिर जाता है और मनसे जो कुछ सोचा जाता है, वह सब वाहनोंसे उतरकर वे तीनों देवता सोनेके सिंहासनोंपर भगवान् विष्णुकी माया ही है। जो कुछ देखने में आ रहा विराजमान हुए। उस समय वेदियोपर प्रज्वलित त्रिविध है, यह सारा प्रपञ्च ही मिथ्या है-ऐसा विचार करके जो अग्नियोंकी भाँति उन तीनोंको शोभा हो रही थी। श्वेत मनुष्य भगवान् विष्णुके चरणोंका भजन करते हैं, वे और लाल वर्णवाले शङ्कर एवं ब्रह्माजीके बीच में बैठे हुए संसार-सागरसे तर जाते हैं। महादेवजी ! इन चरणोंकी पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर भगवान् विष्णु ऐसे जान पड़ते महिमाका कहाँतक वर्णन किया जाय, जिनका जल आप थे मानो दो पर्वत-शिखरोंके बीच बिजलीसहित मेघ भी अपने मस्तकपर धारण करते हैं। ब्रह्माजी ! मैं तो दिखायी दे रहा हो । इन्द्रने उन तीनोंके चरण धोकर उस यही चाहता हूँ कि जिनकी दृष्टि पड़नेमाप्रसे विकारको जलको अपने मस्तकपर चढ़ाया और बड़ी प्रसन्नताके प्राप्त होकर प्रकृति महत्तत्व आदि समस्त जगत्को सृष्टि साथ मधुर वाणीमें इस प्रकार स्तुति करना आरम्भ किया। करती है, उन्हीं भगवान् विष्णुके चरण-कमलोंमें मेरा
इन्द्र बोले-देव ! आज मेरे द्वारा आरम्भ किया जन्म-जन्म दृढ़ अनुराग बना रहे। भगवान् नसिंह ! हुआ यह यज्ञ सफल हो गया; क्योंकि योगियोंको भी आपके समान दयालु प्रभु दूसरा कोई नहीं है, क्योंकि जो जिनका दर्शन मिलना अत्यन्त कठिन है, वे ही आप आपसे शत्रुभाव रखते हैं, उनके लिये भी आप सुखका