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उत्तरखण्ड ]
कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा तथा वनगमन •
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तुम्हें दे देंगे तथा लोगोंमें इस बातका प्रचार कर देंगे कि मेरा बच्चा छः महीनेका होकर मर गया। मैं प्रतिदिन तुम्हारे घरमें आकर बचेका पालन-पोषण करती रहूँगी। तुम इस समय परीक्षा लेनेके लिये यह फल गौको खिला दो ।' तब उस ब्राह्मणीने स्त्रीस्वभावके कारण वह सब कुछ वैसे ही किया। तदनन्तर समय आनेपर उसकी बहिनको बच्चा पैदा हुआ। बच्चेके पिताने बालकको लाकर एकान्तमें धुन्धुलीको दे दिया। उसने अपने स्वामीको सूचना दे दी कि मेरे बच्चा पैदा हो गया और कोई कष्ट नहीं हुआ। आत्मदेवके पुत्र होनेसे लोगोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। ब्राह्मणने बालकका जातकर्म संस्कार करके ब्राह्मणोंको दान दिया। उसके दरवाजेपर गाना, बजाना आदि नाना प्रकारका माङ्गलिक उत्सव होने लगा। धुन्धुलीने स्वामीसे कहा-' -'मेरे स्तनोंमें दूध नहीं है, फिर गाय-भैंस आदि अन्य जीवोंके दूधसे मैं बालकका पोषण कैसे करूंगी ? मेरी बहिनको भी बच्चा हुआ था, किन्तु वह मर गया है; अतः अब उसीको बुलाकर घरमें रखिये, वही आपके बालकका पालनपोषण करेगी।' उसके पतिने पुत्रकी जीवन रक्षाके लिये सब कुछ किया। माताने उसका नाम 'धुन्धुकारी' रखा।
तदनन्तर तीन महीने बीतनेके बाद ब्राह्मणकी गौने भी एक बालकको जन्म दिया, जो सर्वाङ्गसुन्दर दिव्य, निर्मल तथा सुवर्णकी सी कान्तिवाला था। उसे
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देखकर ब्राह्मणदेवताको बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने स्वयं ही बालकके सब संस्कार किये। यह आश्चर्यजनक समाचार सुनकर सब लोग उसे देखनेके लिये आये और आपसमें कहने लगे— 'देखो, इस समय आत्मदेवका कैसा भाग्य उदय हुआ है। कितने आश्चर्यकी बात है कि गायके पेटसे भी देवताके समान रूपवाला बालक उत्पन्न हुआ।' किन्तु दैवयोगसे किसीको भी इस गुप्त रहस्यका पता न लगा। उस बालकके कान गौके समान थे, यह देखकर आत्मदेवने उसका नाम गोकर्ण रख दिया। कुछ काल व्यतीत होनेपर वे दोनों बालक जवान हो गये। उनमें गोकर्ण तो पण्डित और ज्ञानी हुआ; किन्तु धुन्धुकारी महादुष्ट निकला। स्नान और शौचाचारका तो उसमें नाम भी नहीं था। वह अभक्ष्य भक्षण करता, क्रोधमें भरा रहता और बुरी बुरी वस्तुओंका संग्रह किया करता था। भोजन तो वह सबके हाथका कर लेता था । चोरी करता, सब लोगोंसे द्वेष बढ़ाता, दूसरोंके घरो में आग लगा देता और खेलानेके बहाने छोटे बच्चोंको पकड़कर कुऍमें डाल देता था। जीवोंकी हिसा करनेका उसका स्वभाव हो गया था। वह हमेशा हथियार लिये रहता और दीन, दुःखियों तथा अंधोंको कष्ट पहुँचाया करता था। चाण्डालोंके साथ उसने खूब हेल-मेल बढ़ा लिया था। वह प्रतिदिन हाथमें फंदा लिये कुत्तोंकी टोलीके साथ शिकारकी टोहमें घूमता रहता था। उसने वेश्याके कुसङ्गमें पड़कर पिताका सारा धन बरबाद कर दिया। एक दिन तो माता-पिताको खूब पीटकर वह घरके सारे बर्तन भाँड़े उठा ले गया। इस प्रकार धनहीन हो जानेके कारण बेचारा बाप फूट-फूटकर रोने लगा। वह बोला- 'इस प्रकार पुत्रवान् बननेसे तो अपुत्र रहना ही अच्छा है। कुपुत्र बड़ा ही दुःखदायी होता है। अब मैं कहाँ रहूँ ? कहाँ जाऊँ ? कौन मेरा दुःख दूर करेगा ? हाय! मुझपर बड़ा भारी कष्ट आ पहुँचा। अब तो मैं इस दुःखसे अपना प्राण त्याग दूँगा ।'
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इसी समय ज्ञानवान् गोकर्णजी वहाँ आये और वैराग्यका महत्त्व दिखलाते हुए अपने पिताको समझाने लगे - 'पिताजी! इस संसारमें कुछ भी सार नहीं है।