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उत्तरखण्ड ]
. गोकर्णजीकी भागवत-कथासे मुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार .
____ गोकर्णजीकी भागवत-कथासे धुन्युकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त
श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति ...
सूतजी कहते है-पिताके विरक्त होकर वनमें छटपटाता हुआ मर गया। फिर उन्होंने उसकी लाशको चले जानेके बाद एक दिन धुन्धुकारीने अपनी माताको गड्डेमें डालकर गाड़ दिया। प्रायः ऐसी स्त्रियाँ बड़ी खूब पीटा और कहा-'बता, धन कहाँ रखा है? नहीं दुःसाहसवाली होती हैं। इस रहस्यका किसीको भी पता तो लातोसे तेरी खबर लूंगा।' उसकी इस बातसे डरकर नहीं चला। लोगोंके पूछनेपर उन स्त्रियोंने कह दिया कि और पुत्रके उपद्रवोसे दुःखी होकर उनकी माँ रातको हमारे प्रियतम धनके लोभसे कहीं दूर चले गये हैं, इस कुएँमें कूद पड़ी। इससे उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार वर्षके भीतर ही लौट आयेंगे। विद्वान् पुरुषको चाहिये माता-पिताके न रहनेपर गोकर्णजी तीर्थयात्राके लिये चल कि वह असन्मार्गपर चलनेवाली दुष्टा स्त्रियोंका विश्वास दिये। वे योगनिष्ठ थे। उनके मनमें इस घटनाके कारण न करे। जो मूर्ख इनका विश्वास करता है, उसे अवश्य न कोई दुःख था, न कोई सुख; क्योंकि उनका न कोई ही संकटोंका सामना करना पड़ता है। इनकी वाणी तो शत्रु था न मित्र । अब धुन्धुकारी पाँच वेश्याओंके साथ अमृतके समान कामियोंके हृदयमें रसका सञ्चार करती घरमें रहने लगा। उनके पालन-पोषणके लिये बहुत है, किन्तु हृदय छुरेकी धारके समान तीखा होता है; सामग्री जुटानेकी चिन्तासे उसकी बुद्धि मोहित हो गयी भला, इन स्त्रियोंका कौन प्रिय है? अनेक पतियोंसे थी; अतः वह अत्यन्त क्रूरतापूर्ण कर्म करने लगा। एक सहवास करनेवाली वे कुलटाएँ धुन्धुकारीका सारा धन दिन उन कुलटाओंने उससे गहनोंके लिये इच्छा प्रकट लेकर चम्पत हो गयीं और धुन्धुकारी अपने कुकर्मके की। घुन्धुकारी तो कामसे अंधा हो रहा था। उसे अपनी कारण बहुत बड़ा प्रेत हुआ। वह बवंडरका रूप धारण मृत्युको भी याद नहीं रहती थी। वह गहने जुटानेके लिये करके सदा दसों दिशाओंमें दौड़ता फिरता था और घरसे निकल पड़ा और जहां-तहाँसे बहुत-सा धन शीत-घामका क्लेश सहता तथा भूख-प्याससे पीड़ित चुराकर पुनः अपने घर लौट आया। वहाँ आकर उसने होता हुआ 'हा ! दैव' 'हा ! दैव'की बारंवार पुकार उन वेश्याओंको बहुत-से सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और कितने लगाता रहता था; किन्तु कहीं भी उसे शरण नहीं मिलती ही आभूषण दिये। अधिक धनका संग्रह देखकर रातमें थी। कुछ कालके पश्चात् गोकर्णको भी लोगोंके मुँहसे उन स्त्रियोंने विचार किया-'यह प्रतिदिन चोरी करने धुन्धुकारीके मरनेका हाल मालूम हुआ। तब उसे अनाथ जाता है, अतः राजा इसे अवश्य पकड़ेंगे; फिर सारा धन समझकर उन्होंने उसके लिये गयाजी में श्राद्ध किया और छीनकर निश्चय ही इसे प्राणदण्ड भी देंगे। ऐसी दशामें तबसे जिस तीर्थमें भी वे चले जाते, वहाँ उसका श्राद्ध इस धनकी रक्षाके लिये हमीलोग क्यों न इसे गुप्तरूपसे अवश्य करते थे। मार झलें। इसे मार, यह सारा धन लेकर हम कहीं और इस प्रकार तीर्थोंमें भ्रमण करते हुए गोकर्णजी एक जगह चल दें।'
दिन अपने गाँवमें आये और रात्रिके समय दूसरोंकी ऐसा निश्चय करके उन स्त्रियोंने धुन्धुकारीके सो दृष्टि से बचकर वे अपने घरके आँगनमें सोनेके लिये जानेपर उसे रस्सियोंसे कसकर बाँध दिया और गलेमें गये। अपने भाई गोकर्णको वहाँ सोया देख धुन्धुकारीने फाँसी डालकर उसके प्राण लेनेकी चेष्टा करने लगी; आधी रातके समय उन्हें अपना महाभयङ्कर रूप किन्तु वह तुरंत न मरा । इससे उनको बड़ी चिन्ता हुई। दिखाया। वह कभी भेड़ा, कभी हाथी, कभी भैसा, कभी तब उन्होंने जलते हुए अंगारे लाकर उसके मुँहपर डाल इन्द्र और कभी अग्निका रूप धारण करता था। अन्तमें दिये। इससे वह आगकी लपटोंसे पीड़ित होकर पुनः मनुष्यके रूपमें प्रकट हुआ। गोकर्णजी बड़े