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. अयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
दुःख ही इसका स्वरूप है। यह जीवोंको मोहमें गोकर्णकी बात सुनकर उनके पिता आत्मदेव वनमें डालनेवाला है। भला, यहाँ कौन किसका पुत्र है और जानेके लिये उद्यत होकर बोले-'तात ! मुझे वनमें
रहकर क्या करना चाहिये? यह विस्तारपूर्वक बताओ! मैं बड़ा शठ हूँ। अबतक कर्मवश स्नेहके बन्धनमें बैंधकर मैं अपङ्गकी भाँति इस गृहरूपी अँधेरे कुएँ ही पड़ा हुआ हूँ। दयानिधे ! तुम निश्चय ही मेरा उद्धार करो!' ___गोकर्णने कहा-पिताजी ! हड्डी, मांस और रक्तके पिण्डरूप इस शरीरमें आप 'मैं' पनका अभिमान छोड़ दीजिये और स्त्री-पुत्र आदिमें भी ये मेरे हैं' इस भावको सदाके लिये त्याग दीजिये। इस संसारको निरन्तर क्षणभङ्गुर देखिये और एकमात्र वैराग्य-रसके रसिक होकर भगवान्के भजनमें लग जाइये। सदा
भगवद्भजनरूप दिव्य धर्मका ही आश्रय लीजिये। कौन किसका धन । जो इनमें आसक्त होता है, उसे ही सकाम भावसे किये जानेवाले लौकिक धर्मोको छोड़िये। रात-दिन जलना पड़ता है। इन्द्र अथवा चक्रवर्ती साधु पुरुषोंकी सेवा कीजिये, भोगोंकी तृष्णाको त्याग राजाओंको भी कोई सुख नहीं है। सुख तो बस, दीजिये तथा दूसरोंके गुण-दोषोंका विचार करना शीघ्र एकान्तवासी वैराग्यवान् मुनिको ही है। सन्तानके प्रति जो छोड़कर निरन्तर भगवत्सेवा एवं भगवत्कथाके रसका आपकी ममता है, यह महान् अज्ञान है। इसे छोड़िये। पान कीजिये।* मोहमें फंसनेसे मनुष्यको नरकमें ही जाना पड़ता है। इस प्रकार पुत्रके कहनेसे आत्मदेव साठ वर्षकी
औरोंकी तो बात ही क्या है, आपका यह प्रिय शरीर भी अवस्था बीत जानेपर घर छोड़कर स्थिरचित्तसे वनको एक-न-एक दिन नष्ट हो जायगा-आपको छोड़कर चले गये और वहाँ प्रतिदिन भगवान् श्रीहरिकी परिचर्या चल देगा; इसलिये आप अभीसे सब कुछ छोड़कर करते हुए नियमपूर्वक दशम स्कन्धका पाठ करनेसे वनमें चले जाइये।'
उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको प्राप्त कर लिया।
* देहेस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिं त्यज त्वं जायासुतादिषु सदा ममतां विमुझ। पश्यानिशं जगदिदं . क्षणभङ्गनिष्ठं वैराग्यनगरसिको भव भक्तिनिष्ठः ॥ धमै भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान् सेवस्व साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम्। । अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु मुक्त्या सेवाकधारसमहो नितरां पिच त्वम् ।। (१९२१७८-७९)