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उत्तरखण्ड ]
. श्रीमद्भगवदीनाके तेरहवे और चौदहवे अध्यायोंका माहात्म्य .
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अपनी कुतिया छोड़ दी। उस समय सब प्राणियोंके भी कुछ कीचड़के छींटे लग गये। फिर भूख-प्यासकी
पौड़ासे रहित हो कुतियाका रूप त्यागकर उसने दिव्याङ्गनाका रमणीय रूप धारण कर लिया तथा गन्धर्वोसे सुशोभित दिव्य विमानपर आरूढ़ हो वह भी स्वर्गलोकको चली गयी। यह देख मुनिके मेधावी शिष्य
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देखते-देखते खरगोश इस प्रकार भागने लगा मानो कहीं उड़ गया हो। दौड़ते-दौड़ते बहुत थक जानेके कारण वह एक बड़ी खंदकमें गिर पड़ा। गिरनेपर भी वह कुतियाके हाथ नहीं आया और उस स्थानपर जा पहुंचा, जहाँका वातावरण बहुत ही शान्त था। वहाँ हरिन निर्भय होकर सब ओर वृक्षोंकी छायामें बैठे रहते थे। बंदर भी स्वकन्धर हँसने लगे। उन दोनोंके पूर्वजन्मके वैरका अपने-आप टूटकर गिरे हुए नारियलके फलों और पके कारण सोचकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ था। उस समय हुए आमोंसे पूर्ण तृप्त रहते थे। वहाँ सिंह हाथीके बच्चोंके राजाके नेत्र भी आचर्यसे चकित हो उठे। उन्होंने बड़ी साथ खेलते और साँप निडर होकर मोरकी पास्त्रों में घुस भक्तिके साथ प्रणाम करके पूछा-'विप्रवर ! ये नीच जाते थे। उस स्थानपर एक आश्रमके भीतर वत्स नामक योनिमें पड़े हुए दोनों प्राणी-कुतिया और खरगोश मुनि रहते थे, जो जितेन्द्रिय एवं शान्तभावसे निरन्तर ज्ञानहीन होते हुए भी जो स्वर्गमें चले गये-इसका क्या गीताके चौदहवें अध्यायका पाठ किया करते थे। कारण है ? इसकी कथा सुनाइये।' आश्रमके पास ही वत्स मुनिके किसी शिष्यने अपना पैर शिष्यने कहा-भूपाल ! इस वनमें वत्स नामक धोया था। उसके जलसे वहाँकी मिट्टी गीली हो गयी ब्राह्मण रहते हैं, वे बड़े जितेन्द्रिय महात्मा हैं; गीताके थी। खरगोशका जीवन कुछ शेष था । वह हाँफता हुआ चौदहवें अध्यायका सदा जप किया करते हैं। मैं उन्हींका आकर उसी कीचड़में गिर पड़ा। उसके स्पर्शमात्रसे ही शिष्य हूँ, मैंने भी ब्रह्मविद्यामें विशेषज्ञता प्राप्त की है। खरगोश संसार-सागरके पार हो गया और दिव्य गुरुजीकी ही भाँति मैं भी चौदहवें अध्यायका प्रतिदिन विमानपर बैठकर स्वर्गलोकको चला गया। फिर कुतिया जप करता हूँ। मेरे पैर धोनेके जलमें लोटनेके कारण यह भी उसका पीछा करती हई आयी। वहाँ उसके शरीरमें खरगोश कुतियाके साथ ही स्वर्गलोकको प्राप्त हुआ है।