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• अयस्वामीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
हृदयमें सदा प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे ऐसा जान पड़ता था, मानो सूखे काठ हो । भूखसे दुर्बल पवित्रमूर्ति पुरुष स्वप्रमें भी यमराजको नहीं देखते। होनेके कारण वे फिर सो गये। उन्हें इस अवस्थामे जिनके हृदयमें भक्तिभाव भरा हुआ है, उन्हें प्रेत, देखकर देवर्षि नारदजीको बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने पिशाच, राक्षस अथवा असुर भी नहीं छू सकते। लगे 'अब मुझे क्या करना चाहिये, इनकी यह नींद कैसे भगवान् तपस्या, वेदाध्ययन, ज्ञान तथा कर्म आदि किसी जाय, तथा यह सबसे बड़ा बुढ़ापा कैसे दूर हो?' भी साधनसे वशमें नहीं किये जा सकते। वे केवल शौनकजी ! इस प्रकार चिन्ता करते-करते उन्होंने भक्तिसे ही वशीभूत होते हैं। इस विषयमें गोपियाँ ही भगवान् गोविन्दका स्मरण किया। उसी समय प्रमाण है। सहस्रों जन्मोंका पुण्य उदय होनेपर मनुष्योंका आकाशवाणी हुई–'मुने! खेद मत करो। तुम्हारा भक्तिमें अनुराग होता है। कलियुगमें भक्ति ही सार है। उद्योग निश्चय ही सफल होगा। देवर्षे ! तुम इसके लिये भक्तिसे ही भगवान् श्रीकृष्ण सामने प्रकट होते-प्रत्यक्ष सत्कर्मका अनुष्ठान करो। वह कर्म क्या है, यह तुम्हें दर्शन देते हैं। जो लोग भक्तिसे द्रोह करते हैं, वे तीनों साधु-शिरोमणि संतजन बतलायेंगे। उस सत्कर्मके लोकोंमें दुःख उठाते हैं। पूर्वकालमें भक्तका तिरस्कार करनेपर इनको निद्रा और वृद्धावस्था दोनों क्षणभरमें दूर करनेवाले दुर्वासा ऋषिको कितना फ्रेश भोगना पड़ा था। हो जायेगी तथा सर्वत्र भक्तिका प्रसार हो जायगा।' व्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ और ज्ञान-चर्चा आदि बहुत-से यह आकाशवाणी वहाँ सबको साफ-साफ सुनायी साधनोंकी क्या आवश्यकता है? एकमात्र भक्ति ही दी। इससे नारदजीको बड़ा विस्मय हुआ। वे कहने मोक्ष प्रदान करनेवाली है। पर
लगे-'मैं तो इसका भाव नहीं समझ सका। इस इस प्रकार नारदजीद्वारा निर्णय किये हुए अपने आकाशवाणीने भी गुप्तरूपसे ही बात की है। यह नहीं माहात्म्यको सुनकर भक्तिके सारे अङ्ग पुष्ट हो गये। बताया कि वह कौन-सा साधन करनेयोग्य है, जिससे उसने नारदजीसे कहा-'नारदजी ! आप धन्य है। इनका कार्य सिद्ध हो सके। वे संत न जाने कहाँ होंगे मुझमें आपकी निश्चल प्रीति है। मैं सदा आपके हृदयमें और किस प्रकार उस साधनका उपदेश देंगे। निवास करूंगी। कभी उसे छोड़कर नहीं जाऊँगी। आकाशवाणीने जो कुछ कहा है, उसके अनुसार यहाँ साधो ! आप बड़े कृपालु हैं। आपने एक क्षणमें ही मेरा मुझे क्या करना चाहिये?' . सारा दुःख दूर कर दिया, किन्तु अभीतक मेरे पुत्रोंको। तदनन्तर ज्ञान और वैराग्य दोनोंको वहीं छोड़कर चेत नहीं हुआ; अतः इन्हें भी शीघ्र ही सचेत कीजिये। नारद मुनि वहाँसे चल दिये और एक-एक तीर्थमें जाकर
। भक्तिके ये वचन सुनकर नारदजीको बड़ी दया मार्गमें मिलनेवाले मुनीश्वरोंसे वह साधन पूछने लगे। आयी। वे उन्हें हाथकी अङ्गलियोंसे दबा-दबाकर जगाने उनका वृत्तान्त सब लोग सुन लेते; किन्तु कोई भी कुछ लगे; फिर कानके पास मुँह लगाकर जोर-जोरसे निश्चय करके उत्तर नहीं देता था। कुछ लोगोंने तो इस बोले-'ओ ज्ञान ! जल्दी जागो। वैराग्य ! तुम भी कार्यको असाध्य बता दिया और कोई बोले, 'इसका शीघ्र ही जाग उठो।' फिर वेदध्वनि, वेदान्तपोष और ठीक-ठीक पता लगना कठिन है। कुछ लोग सुनकर बारम्बार गीता-पाठ करके उन्होंने उन दोनोंको जगाया। मौन रह गये और कितने ही मुनि अपनी अवज्ञा होनेके इससे वे बहुत जोर लगाकर किसी तरह उठ तो गये; भयसे चुपचाप खिसक गये। तीनों लोकोंमें महान् किन्तु आँख खोलकर देख न सके। आलस्यके कारण हाहाकार मचा, जो सबको विस्मयमें डालनेवाला था। दोनों ही जंभाई लेते रहे। उनके सिरके बाल पककर लोग आपसमें काना-फूसी करने लगे-भाई ! जब बगुलोंकी तरह सफेद हो गये थे। सारे अङ्ग रक्त-मांससे वेदध्वनि, वेदान्तघोष और गीता-पाठ सुनानेपर भी ज्ञान हीन होनेके कारण काल प्रतीत होते थे। उन्हें देखकर और वैराग्य नहीं जाग सके तो अब दूसरा कोई उपाय