Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 840
________________ ८४० . अर्थयस्व एपीकेशं यदीच्छसि परं पदम् + [ संक्षिप्त पयपुराण अब मैं अपने हंसनेका कारण बताता है। महाराष्ट्रमें उसी पापसे उसको खरगोशकी योनिमें जन्म मिला। प्रत्युदक नामक महान् नगर है; वहाँ केशव नामका एक ब्राह्मणी भी अपने पापके कारण कुतिया हुई। ब्राह्मण रहता था, जो कपटी मनुष्योंमें अग्रगण्य था। श्रीमहादेवजी कहते है-यह सारी कथा उसकी स्त्रीका नाम विलोभना था। वह स्वच्छन्द विहार सुनकर श्रद्धालु राजाने गीताके चौदहवें अध्यायका करनेवाली थी। इससे क्रोधमें आकर जन्मभरके वैरको पाठ आरम्भ कर दिया। इससे उन्हें परमगतिकी याद करके ब्राह्मणने अपनी स्त्रीका वध कर डाला और प्राप्ति हुई। श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! अब गीताके देखा । अश्वका लक्षण जाननेवाले अमात्योंने उसकी बड़ी पंद्रहवे अध्यायका माहात्म्य सुनो। गौडदेशमें कृपाण- प्रशंसा की। सुनकर राजा अपार आनन्दमें निमग्न हो गये नरसिंह नामक एक राजा थे, जिनकी तलवारकी धारसे और उन्होंने वैश्यको मुंहमांगा सुवर्ण देकर तुरंत ही उस युद्धमें देवता भी परास्त हो जाते थे। उनका बुद्धिमान् अश्वको खरीद लिया। कुछ दिनोंके बाद एक समय राजा सेनापति शस्त्र और शास्त्रकी कलाओंका भण्डार था। शिकार खेलनेके लिये उत्सुक हो उसी घोड़ेपर चढ़कर उसका नाम था सरभ-मेरुण्ड । उसकी भुजाओंमें प्रचण्ड वनमें गये। वहाँ मृगोंके पीछे इन्होंने अपना घोड़ा बल था। एक समय उस पापीने राजकुमारोंसहित बढ़ाया। पीछे-पीछे सब ओरसे दौड़कर आते हुए समस्त महाराजका वध करके स्वयं ही राज्य करनेका विचार सैनिकोंका साथ छूट गया। वे हिरनोद्वारा आकृष्ट होकर किया। इस निश्चयके कुछ ही दिनों बाद वह हैजेका बहुत दूर निकल गये। प्यासने उन्हें व्याकुल कर दिया। शिकार होकर मर गया। थोड़े समयमें वह पापात्मा तब वे घोड़ेसे उतरकर जलको खोज करने लगे। घोड़ेको अपने पूर्वकर्मके कारण सिन्धुदेशमें एक तेजस्वी घोड़ा तो उन्होंने वृक्षकी डालोमें बाँध दिया और स्वयं एक हुआ। उसका पेट सटा हुआ था। घोड़ेके लक्षणोंका चट्टानपर चढ़ने लगे। कुछ दूर जानेपर इन्होंने देखा कि ठीक-ठीक ज्ञान रखनेवाले किसी वैश्यके पुत्रने एक पत्तेका टुकड़ा हवासे उड़कर शिलाखण्डपर गिरा है। बहुत-सा मूल्य देकर उस अधको खरीद लिया और बड़े उसमें गीताके पंद्रहवें अध्यायका आधा श्लोक लिखा यत्नके साथ उसे राजधानीतक वह ले आया। वैश्य- हुआ था। राजा उसे बाँचने लगे। उनके मुखसे गीताके कुमार वह अश्व राजाको देनेके लिये लाया था। यद्यपि अक्षर सुनकर घोड़ा तुरंत गिर पड़ा और अश्वयोनिसे राजा उससे परिचित थे, तथापि द्वारपालने जाकर उसके उसकी मुक्ति हो गयी तथा तुरंत ही दिव्य विमानपर आगमनकी सूचना की। राजाने पूछ-'किसलिये आये बैठकर वह स्वर्गलोकको चला गया। तत्पश्चात् राजाने हो?' तब उसने स्पष्ट शब्दोंमें उत्तर दिया- 'देव ! पहाड़पर चढ़कर एक उत्तम आश्रम देखा, जहाँ सिन्धुदेशमें एक उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न अश्व था, जिसे नागकेसर, केले, आम और नारियलके वृक्ष लहरा रहे तीनों लोकोंका एक रत्न समझकर मैंने बहुत-सा मूल्य थे। आश्रमके भीतर एक ब्राह्मण बैठे हुए थे, जो देकर खरीद लिया है।' राजाने आज्ञा दी-'उस अश्वको संसारको वासनाओसे मुक्त थे। राजाने उन्हें प्रणाम करके यहाँ ले आओ।'... . बड़ी भक्तिके साथ पूछा- 'ब्रह्मन् ! मेरा अश्व जो अभीवास्तवमें वह घोड़ा गुणोंमें उचैःश्रवाके समान था। अभी स्वर्गको चला गया है, उसमें क्या कारण है?' सुन्दर रूपका तो मानो घर ही था। शुभ लक्षणोंका समुद्र राजाकी बात सुनकर त्रिकालदर्शी, मन्त्रवेत्ता एवं जान पड़ता था। वैश्य घोड़ा ले आया और राजाने उसे महापुरुषोंमें श्रेष्ठ विष्णुशर्मा नामक ब्राह्मणने कहा

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