________________
८४६
•
अर्चयस्य हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
कहाँ भागवतकथा, कहाँ काँच और कहाँ बहुमूल्य मणि! यह विचारकर वे देवताओंकी बातपर हँसने लगे, तथा उन्हें अनधिकारी जानकर कथामृतका दान नहीं किया। अतः श्रीमद्भागवतकी कथा देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है। केवल श्रीमद्भागवतके श्रवणसे ही राजा परीक्षित्का मोक्ष हुआ देख पूर्वकालमें ब्रह्माजीको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने सत्यलोकमें तराजू बाँधकर सब साधनोंको तौला उस समय अन्य सभी
1
साधन हलके पड़ गये, अपने गौरवके कारण श्रीमद्भागवतका ही पलड़ा सबसे भारी रहा। यह देखकर समस्त ऋषियोंको भी बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने इस पृथ्वीपर भगवत्स्वरूप भागवत शास्त्रको ही पढ़नेसुननेसे तत्काल भगवान्की प्राप्ति करानेवाला निश्चय किया। यदि एक वर्षमें श्रीमद्भागवतको सुनकर पूरा किया जाय, तो वह श्रवण महान् सौख्य प्रदान करनेवाला होता है। जिसके हृदयमें भगवद्भक्तिकी कामना हो, उसके लिये एक मासमें पूरे श्रीमद्भागवतका श्रवण उत्तम माना गया है। यदि सप्ताहपारायणकी विधिसे इसका श्रवण किया जाय तो यह सर्वथा मोक्ष देनेवाला होता है। पूर्वकालमें सनकादि महर्षियोंने कृपा करके इसे देवर्षि नारदको सुनाया था। यद्यपि देवर्षि नारद श्रीमद्भागवतको पहले ही ब्रह्माजीके मुखसे सुन चुके थे तथापि इसके सप्ताहश्रवणकी विधि तो उन्हें सनकादिने ही बतायी थी।
शौनकजी ! अब मैं आपको वह भक्तिपूर्ण कथानक सुनाता हूँ, जो श्रीशुकदेवजीने मुझे अपना प्रिय शिष्य जानकर एकान्तमें सुनाया था। एक समयकी बात है, सनक सनन्दन आदि चारों निर्मल अन्तःकरणवाले महर्षि सत्सङ्गके लिये विशालापुरी (बदरिकाश्रम) में आये। वहाँ उन्होंने नारदजीको देखा।
सनकादि कुमारोंने पूछा- ब्रह्मन्! आपके मुखपर दीनता क्यों छा रही है। आप चिन्तासे आतुर कैसे हो रहे हैं। इतनी उतावलीके साथ आप जाते कहाँ हैं और आये कहाँसे हैं ? इस समय तो आप जिसका सारा धन लुट गया हो, उस पुरुषके समान सुध-बुध खोये हुए हैं।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
आप जैसे आसक्तिशून्य विरक्त पुरुषकी ऐसी अवस्था होनी तो उचित नहीं है। बताइये, इसका क्या कारण है ?
AMBHAVA
नारदजीने कहा- महात्माओ ! मैं पृथ्वीको [नाना तीर्थोकि कारण] सबसे उत्तम जानकर यहाँकी यात्रा करनेके लिये आया था। आनेपर पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी, हरिक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, श्रीरङ्ग और सेतुबन्ध आदि तीथोंमें इधर-उधर विचरता रहा। किन्तु कहीं भी मुझे मनको सन्तोष देनेवाली शान्ति नहीं मिली। इस समय अधर्मके सखा कलियुगने सारी पृथ्वीको पीड़ित कर रखा है। अब यहाँ सत्य, तपस्या, शौच, दया और दान आदि कुछ भी नहीं हैं। बेचारे जीव पेट पालने में लगे हैं। वे असत्यभाषी, आलसी, मन्दबुद्धि और भाग्यहीन हो गये हैं। उन्हें तरह तरहके उपद्रव घेरे रहते हैं। साधु-संत कहलानेवाले लोग पाखण्डमें फँस गये हैं। ऊपरसे विरक्त जान पड़ते हैं, किन्तु वास्तवमें पूरे संग्रही हैं। घर-घरमें स्त्रियोंका राज्य है। साले ही सलाहकार बने हुए हैं। पैसोंके लोभसे कन्याएँ तक बेची जाती हैं। पति-पत्नीमें सदा ही कलह मचा रहता है आश्रमों, तीर्थो और नदियोंपर म्लेच्छोंने अधिकार जमा रखा है। उन दुष्टोंने बहुत-से देवमन्दिर भी नष्ट कर दिये हैं। अब यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध, न कोई ज्ञानी है और न सत्कर्म करनेवाला ही इस समय सब साधन कलिरूपी दावानलसे भस्म हो गया है। पृथ्वीपर चारों ओर सभी