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. अर्चयस्व हुषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
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रमणीय पुरी है। उसे पूर्वकालमें विश्वकर्मान बनाया था। कर लिया है। गीताके अठारहवें अध्यायका पाठ सब उस पुरीमें देवताओंद्वारा सेवित इन्द्र शचीके साथ निवास पुण्योंका शिरोमणि है। उसीका आश्रय लेकर तुम भी करते थे। एक दिन वे सुखपूर्वक बैठे हुए थे, इतनेहीमें अपने पदपर स्थिर हो सकते हो। उन्होंने देखा कि भगवान् विष्णुके दूतोंसे सेवित एक अन्य भगवान् विष्णुके ये वचन सुनकर और उस उत्तम पुरुष वहाँ आ रहा है। इन्द्र उस नवागत पुरुषके तेजसे उपायको जानकर इन्द्र ब्राह्मणका वेष बनाये गोदावरीके तिरस्कृत होकर तुरंत ही अपने मणिमय सिंहासनसे तटपर गये। वहाँ उन्होंने कालिकायाम नामक उत्तम और मण्डपमे गिर पड़े। तब इन्द्रके सेवकोंने देवलोकके पवित्र नगर देखा, जहाँ कालका भी मर्दन करनेवाले साम्राज्यका मुकुट इस नूतन इन्द्रके मस्तकपर रख दिया। भगवान् कालेश्वर विराजमान हैं। वहीं गोदावरी-तटपर फिर तो दिव्य गीत गाती हुई देवाङ्गनाओंके साथ सब एक परम धर्मात्मा ब्राह्मण बैठे थे, जो बड़े ही दयालु देवता उनकी आरती उतारने लगे। ऋषियोंने वेदमन्त्रोका और वेदोंके पारङ्गत विद्वान् थे। वे अपने मनको वशमें उच्चारण करके उन्हें अनेक आशीर्वाद दिये। रम्भा आदि करके प्रतिदिन गीताके अठारहवें अध्यायका जप किया अप्सराएँ उनके आगे नृत्य करने लगीं। गन्धर्वोका ललित करते थे। उन्हें देखकर इन्द्रने बड़ी प्रसन्नताके साथ स्वरमें मङ्गलमय गान होने लगा।
उनके दोनों चरणोंमें मस्तक झुकाया और उन्हींसे इस प्रकार इस नवीन इन्द्रको सौ यज्ञोंका अनुष्ठान अठारहवें अध्यायको पढ़ा। फिर उसीके पुण्यसे उन्होंने किये बिना ही नाना प्रकारके उत्सवोंसे सेवित देखकर पुराने इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगे'इसने तो मार्गमें न कभी पौसले बनवाये हैं, न पोखरे खुदवाये हैं और न पथिकोंको विश्राम देनेवाले बड़े-बड़े वृक्ष ही लगवाये है। अकाल पड़नेपर अन्नदानके द्वारा इसने प्राणियोंका सत्कार भी नहीं किया है। इसके द्वारा तीर्थोमे सत्र और गाँवोमे यज्ञका अनुष्ठान भी नहीं हुआ है। फिर इसने यहाँ भाग्यको दी हुई ये सारी वस्तुएँ कैसे प्राप्त की है ?' इस चिन्तासे व्याकुल होकर इन्द्र भगवान् विष्णुसे पूछनेके लिये वेगपूर्वक क्षीरसागरके तटपर गये
और वहाँ अकस्मात् अपने साम्राज्यसे भ्रष्ट होनेका दुःख निवेदन करते हुए बोले- लक्ष्मीकान्त ! मैंने पूर्वकालमें आपकी प्रसन्नताके लिये सौ यज्ञोंका अनुष्ठान किया था। उसीके पुण्यसे मुझे इन्द्रपदकी प्राप्ति हुई थी; किन्तु इस समय स्वर्गमें कोई दूसरा ही इन्द्र अधिकार जमाये बैठा है। उसने तो न कभी धर्मका अनुष्ठान किया - है और न यज्ञोंका । फिर उसने मेरे दिव्य सिंहासनपर कैसे श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लिया। इन्द्र आदि अधिकार जमाया है?'
देवताओका पद बहुत ही छोटा है, यह जानकर वे परम श्रीभगवान् बोले-इन्द्र ! वह गीताके अठारहवें हर्षके साथ उत्तम वैकुण्ठधामको गये। अतः यह अध्यायमेंसे पाँच श्लोकोंका प्रतिदिन जप करता है। अध्याय मुनियोंके लिये श्रेष्ठ परमतत्त्व है। पार्वती ! उसीके पुण्यसे उसने तुम्हारे उत्तम साम्राज्यको प्राप्त अठारहवें अध्यायके इस दिव्य माहात्म्यका वर्णन