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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
समझकर सदा उन्हें संतुष्ट रखे । शरणागत शिष्यको कभी तो कान बंद करके वहाँसे अन्यत्र चला जाय। इहलोक और परलोककी चिन्ता नहीं करनी चाहिये: विप्रवर नारद ! मेरा तो ऐसा विचार है कि शरणागत क्योंकि इहलोकके जितने भी सुख भोग हैं, वे पूर्वजन्ममें भक्तको मृत्युपर्यन्त चातकी वृत्तिका आश्रय लेकर युगल किये हुए कोंके अनुसार प्राप्त होते हैं। [अतः जितना मन्त्रके अर्थका विचार करते हुए रहना चाहिये। जैसे प्रारब्ध होगा, उतना अपने-आप मिल जायगा) और चातक सरोवर, समुद्र और नदी आदिको छोड़कर केवल जो परलोकका सुख है, उसे तो भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही मेघसे पानीको याचना करता है अथवा प्यासा ही मर पूर्ण करेंगे। अतः मनुष्यको इहलोक और परलोकके जाता है, उसी प्रकार प्रयत्नपूर्वक भगवत्प्राप्तिके साधनोंपर सुखोंके लिये किये जानेवाले प्रयत्नका सर्वथा त्याग कर विचार करना चाहिये। अपने इष्टदेव श्रीराधा और देना चाहिये। सब प्रकारके उपायोंका परित्याग करके श्रीकृष्णसे इस बातकी याचना करनी चाहिये कि वे उसे अपनेको श्रीकृष्णका सेवक समझकर निरन्तर उन्हींकी आश्रय प्रदान करें। सदा अपने इष्टदेवके, उनके भक्तोंके आराधनामें संलग्न रहना चाहिये। जैसे पतिव्रता स्त्री और विशेषतः गुरुके अनुकूल रहना चाहिये । प्रतिकूलताचिरकालसे परदेश गये हुए अपने पतिके लिये सदा दीन का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये।मैं एक बार शरणमें बनी रहती है, प्रियतममें अनुराग रखती हुई केवल उसीसे जाकर अनुभवपूर्वक कहता हूँ-श्रीराधा और श्रीकृष्ण मिलनेकी आकाङ्क्षा रखती है, निरन्तर उसीके गुणोंका दोनोंके गुण परम कल्याणमय हैं; मेरी बातफर विचार चिन्तन, गायन और श्रवण करती है, उसी प्रकार करके शरणागत पुरुष उनपर विश्वास करे कि ये दोनों शरणागत भक्तको भी सदा श्रीकृष्णके गुण तथा लीला इष्टदेव निश्चय ही मेरा उद्धार करेंगे। फिर विनीत भावसे आदिका स्मरण, कीर्तन और श्रवण करते रहना चाहिये। प्रार्थना करते हुए कहे- 'नाथ ! आप ही दोनों पुत्र, मित्र परन्तु यह सब किसी दूसरे फलका साधन बनाकर और गृह आदिकी ममतासे पूर्ण इस संसारसागरसे मेरी कदापि नहीं करना चाहिये। जैसे पतिव्रता कामिनी रक्षा करनेवाले हैं। आप ही शरणागतोका भय दूर करते चिरकाल के बाद परदेशसे लौटे हुए पतिको एकान्तमें हैं। मैं जैसा भी है, इस लोक और परलोकमें मेरा जो कुछ पाकर उसे छातीसे लगाती तथा नेत्रोंसे उसकी रूप- भी है, वह सब आज मैंने आप दोनोंके चरणों में समर्पित सुधाका पान करती है, साथ ही वह अधिक प्रसन्नताके कर दिया। मैं अपराधोंका घर हैं। मैंने सब साधन छोड़ साथ उसकी सेवामें लग जाती है, उसी प्रकार अर्चा- रखे हैं। अब मुझे कोई सहारा देनेवाला नहीं है, इसलिये विग्रह (स्वयं प्रकट हुई मूर्ति) के रूपमें अवतीर्ण हुए नाथ ! अब आप ही दोनों मेरे आश्रय हैं। राधिकाकान्त ! भगवानके साथ रहकर भक्तको निरन्तर उनकी परिचर्यामें मैं मन, वाणी और कर्मसे आपका हूँ। कृष्णप्रिया राधे ! लगे रहना चाहिये। वह सदा अनन्य भावसे भगवान्की मैं आपका ही हूँ, आप ही दोनों मेरी गति है। मैं आपकी शरणमें रहे। भगवानकी आराधनाके सिवा दूसरे किसी शरणमें पड़ा हूँ। आप दोनों करुणाके भंडार-दयाके साधनका न तो आश्रय ले और न दूसरे साधनकी इच्छा सागर हैं; मुझपर कृपा करें। मैं दुष्ट हैं, अपराधी हूँ; तो भी करे। भगवान्के सिवा अन्य किसी वस्तुसे प्रयोजन न कृपा करके मुझे अपना दास्यभाव प्रदान करें।' मुनिश्रेष्ठ ! रखे। कभी किसीकी निन्दा न करे। न तो दूसरेका जूठा जो भक्त शीघ्र ही दास्यभावकी प्राप्ति चाहता हो, उसे खाय और न दूसरेका प्रसाद ही ग्रहण करे । भगवान् और भगवान्के चरण-कमलोका चिन्तन करते हुए प्रतिदिन वैष्णवोंकी निन्दा कभी न सुने । यदि कहीं निन्दा होती हो उपर्युक्त प्रार्थना करनी चाहिये।*
*संसारसागरात्राचौ पुत्रमित्रगृहाकुल्लात् । गोठारी में युवामेव प्रपन्नभयभञ्जनौ ।। योऽहं ममास्ति यत्किंचिदिह लोके परत्र च। तत्सर्व भवतोरा चरणेषु समर्पितम्।