________________
उत्तरखण्ड ] ...
• आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य .
'संसारसागरसे तारनेवाले देवदेव हृषीकेश! पहुँचकर आनन्दका अनुभव करता है। तत्पश्चात् द्वादशीको इस जलके घड़ेका दान करनेसे आप मुझे परम गतिकी ब्राह्मणभोजन करानेके बाद स्वयं भोजन करे । जो इस प्रकार प्राप्ति कराइये।
पूर्णरूपसे पापनाशिनी एकादशीका व्रत करता है, वह सब ... भीमसेन ! ज्येष्ठ मासमें शुरूपक्षकी जो शुभ पापोंसे मुक्त हो अनामय पदको प्राप्त होता है। एकादशी होती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिये तथा यह सुनकर भीमसेनने भी इस शुभ एकादशीका उस दिन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको शक्करके साथ जलके घड़े दान व्रत आरम्भ कर दिया। तबसे यह लोकमें 'पाण्डवकरने चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्य भगवान् विष्णुके समीप द्वादशी के नामसे विख्यात हुई।
आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
युधिष्ठिरने पूछा-वासुदेव! आषाढ़के उनकी बात सुनकर कुबेर क्रोध भर गये और कृष्णपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? तुरंत ही हेममालीको बुलवाया। देर हुई जानकर कृपया उसका वर्णन कीजिये।
हेममालीके नेत्र भयसे व्याकुल हो रहे थे। वह आकर भगवान् श्रीकृष्ण बोले-नृपश्रेष्ठ ! आषाढ़के कुवेरके सामने खड़ा हुआ। उसे देखकर कुबेरकी आँखें कृष्णपक्षकी एकादशीका नाम 'योगिनी' है। यह बड़े- क्रोधसे लाल हो गयौं। वे बोले-'ओ पापी ! ओ बड़े पातकोंका नाश करनेवाली है। संसारसागरमें डूबे दुष्ट ! ओ दुराचारी ! तूने भगवान्की अवहेलना की है, हुए प्राणियोंके लिये यह सनातन नौकाके समान है। अतः कोढ़से युक्त और अपनी उस प्रियतमासे वियुक्त तीनों लोकोंमें यह सारभूत व्रत है। . .. होकर इस स्थानसे भ्रष्ट होकर अन्यत्र चला जा।' .. अलकापुरीमे राजाधिराज कुबेर रहते हैं। वे सदा कुवेरके ऐसा कहनेपर वह उस स्थानसे नीचे गिर गया। भगवान् शिवकी भक्तिमें तत्पर रहनेवाले हैं। उनके उस समय उसके हृदयमें महान् दुःख हो रहा था। हेममाली नामवाला एक यक्ष सेवक था, जो पूजाके कोढ़ोंसे सारा शरीर पीड़ित था। परन्तु शिव-पूजाके लिये फूल लाया करता था। हेममालौकी पत्नी बड़ी प्रभावसे उसकी स्मरण-शक्ति लुप्त नहीं होती थी। सुन्दरी थी। उसका नाम विशालाक्षी था। वह यक्ष पातकसे दबा होनेपर भी वह अपने पूर्वकर्मको याद कामपाशमें आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नीमें आसक्त रखता था। तदनन्तर इधर-उधर घूमता हुआ वह रहता था। एक दिनकी बात है, हेमामाली मानसरोवरसे पर्वतोंमें श्रेष्ठ मेरुगिरिके शिखरपर गया। वहाँ उसे फूल लाकर अपने घरमें ही ठहर गया और पलीके तपस्याके पुञ्ज मुनिवर मार्कण्डेयजीका दर्शन हुआ। प्रेमका रसास्वादन करने लगा; अतः कुबेरके भवनमें न पापकर्मा यक्षने दूरसे ही मुनिके चरणों में प्रणाम किया। जा सका। इधर कुबेर मन्दिरमें बैठकर शिवका पूजन मुनिवर मार्कण्डेयने उसे भयसे कांपते देख परोपकारको कर रहे थे। उन्होंने दोपहरतक फूल आनेकी प्रतीक्षा इच्छासे निकट बुलाकर कहा-'तुझे कोढ़के रोगने की। जब पूजाका समय व्यतीत हो गया तो यक्षराजने कैसे दबा लिया ? तू क्यों इतना अधिक निन्दनीय जान कुपित होकर सेवकोंसे पूछा-'यक्षो ! दुरात्मा हेममाली पड़ता है?' क्यों नहीं आ रहा है, इस बातका पता तो लगाओ।' यक्ष बोला-मुने ! मैं कुबेरका अनुचर हूँ। मेरा __यक्षोंने कहा-राजन् ! वह तो पत्नीकी कामनामें नाम हेममाली है। मैं प्रतिदिन मानसरोवरसे फूल ले आसक्त हो अपनी इच्छरके अनुसार घरमें ही रमण कर आकर शिव-पूजाके समय कुबेरको दिया करता था।
एक दिन पत्नी-सहवासके सुख में फंस जानेके कारण मुझे