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अर्थयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
ब्राह्मणोंको नीचे लिखी वस्तुओंका दान करना चाहिये। गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, ओढ़ने-बिछौने आदिके सहित चारपाई, सप्तधान्य तथा अन्यान्य वस्तुएँ भी अपनी शक्तिके अनुसार दान करनी चाहिये। शास्त्रोक्त फल पानेकी इच्छा हो तो धनकी कृपणता नहीं करनी चाहिये । अन्तमें ब्राह्मणोंको भोजन कराये और उन्हें उत्तम दक्षिणा दे। धनहीन व्यक्तियोंको भी चाहिये कि वे इस व्रतका अनुष्ठान करें और शक्तिके अनुसार दान दें। मेरे व्रतमें सभी वर्णके मनुष्योंका अधिकार है। मेरी शरणमें आये हुए भक्तोंको विशेषरूपसे इसका अनुष्ठान करना चाहिये। *
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
दीजिये और इस व्रतसे प्रसन्न हो मुझे भोग और मोक्ष प्रदान कीजिये ।
इस प्रकार प्रार्थना करके विधिपूर्वक देवताका विसर्जन करे। उपहार आदिकी सभी वस्तुएँ आचार्यको निवेदन करे। ब्राह्मणोंको दक्षिणासे सन्तुष्ट करके विदा करे। फिर भगवान्का चिन्तन करते हुए भाई-बन्धुओंके साथ भोजन करे। जिसके पास कुछ भी नहीं है, ऐसा दरिद्र मनुष्य भी यदि नियमपूर्वक नृसिंहचतुर्दशीको उपवास करता है तो वह निःसन्देह सात जन्मके पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो भक्तिपूर्वक इस पापनाशक व्रतका श्रवण करता है, उसकी ब्रह्महत्या दूर हो जाती है। जो मानव इस परम पवित्र एवं गोपनीय व्रतका कीर्तन करता है, वह सम्पूर्ण मनोरथोंके साथ ही इस व्रतके फलको भी पा लेता है। जो मध्याह्नकालमें यथाशक्ति इस व्रतका अनुष्ठान करता और लीलावती देवीके साथ हारीत मुनि एवं भगवान् नृसिंहका पूजन करता है, उसे सनातन मोक्षकी प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं, वह श्रीनृसिंहके प्रसादसे सदा मनोवाञ्छित वस्तुओंको प्राप्त करता रहता है।
उस तीर्थमें परम पुण्यमयी सिन्धु नदी बहुत ही रमणीय है। उसके समीप मूलस्थान नामक नगर आज भी वर्तमान है। उस नगरका निर्माण देवताओंने किया था। वहीं महात्मा हारीतका निवासस्थान है और उसीमें लीलावती देवी भी रहती हैं। सिन्धु नदीके निकट होनेसे वहाँ निरन्तर जलके प्रबल वेगकी प्रतिध्वनि सुनायी पड़ती है। कलियुग आनेपर वहाँ बहुत-से पापाचारी म्लेच्छ निवास करने लगते हैं। पार्वती भगवान् नृसिंहके प्रादुर्भाव -कालमें जैसा अद्भुत शब्द हुआ था, उसीके समान प्रतिध्वनि वहाँ आज भी सुनायी देती है। ब्रह्महत्यारा, सुवर्ण चुरानेवाला, शराबी और गुरुपलीके साथ समागम करनेवाला ही क्यों न हो, जो मनुष्य सिन्धु नदीके तटपर जाकर विशेषरूपसे स्नान करता है, वह निश्चय ही श्रीनृसिंहके प्रसादसे मुक्त हो जाता है। जो
श्रीमहादेवजी बोले- हे पार्वती! इसके बाद व्रत करनेवाले पुरुषको इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये। विशाल रूप धारण करनेवाले भगवान् नृसिंह ! करोड़ों कालोंके लिये भी आपको परास्त करना कठिन है। बालरूपधारी प्रभो! आपको नमस्कार है। बाल अवस्था तथा बालकरूप धारण करनेवाले श्रीनृसिंह भगवान्को नमस्कार है। जो सर्वत्र व्यापक, सबको आनन्दित करनेवाले, स्वतः प्रकट होनेवाले, सर्वजीव स्वरूप, विश्वके स्वामी, देवस्वरूप और सूर्यमण्डलमें स्थित रहनेवाले हैं, उन भगवान्को प्रणाम है। दयासिन्धो! आपको नमस्कार है। आप तेईस तत्त्वोंके साक्षी चौबीसवें तत्त्वरूप हैं। काल, रुद्र और अग्नि आपके ही स्वरूप हैं। यह जगत् भी आपसे भिन्न नहीं है। नर और सिंहका रूप धारण करनेवाले आप भगवान्को नमस्कार है ।
देवेश ! मेरे वंशमें जो मनुष्य उत्पन्न हो चुके हैं और जो उत्पन्न होनेवाले हैं, उन सबका दुःखदायी भवसागरसे उद्धार कीजिये। जगत्पते। मैं पातकके समुद्रमें डूबा हूँ। नाना प्रकारको व्याधियाँ ही इस समुद्रकी जल राशि हैं। इसमें रहनेवाले जीव मेरा तिरस्कार करते हैं। इस कारण मैं महान् दुःखमें पड़ गया हूँ। शेषशायी देवेश्वर! मुझे अपने हाथोंका सहारा
* सर्वेषामेव वर्णानामधिकारोऽस्ति मद्रते । मद्भक्तैस्तु विशेषेण कर्तव्यं मत्परायणैः ॥ (१७० | ७३)