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उत्तरखण्ड ]
. श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य .
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उस स्थानपर पहुंचकर राजाने सारी वस्तुएँ उनके आगे रैकने कहा-राजन् ! मैं प्रतिदिन गीताके छठे निवेदन कर दी और पृथ्वीपर पड़कर साष्टाङ्ग प्रणाम अध्यायका जप करता हूँ इसीसे मेरी तेजोराशि किया। महात्मा रैक्व अत्यन्त भक्तिके साथ चरणोंमें पड़े देवताओंके लिये भी दुःसह है। हुए राजा जानश्रुतिपर कुपित हो उठे और बोले-रे तदनन्तर परम बुद्धिमान् राजा जानश्रुतिने यत्नपूर्वक शूद्र ! तू दुष्ट राजा है। क्या तू मेरा वृत्तान्त नहीं जानता? महात्मा रैक्कसे गीताके छठे अध्यायका अभ्यास किया। यह खच्चरियोसे जुती हुई अपनी ऊँची गाड़ी ले जा। ये इससे उन्हें मोक्षकी प्राप्ति हुई। इधर रैक भी भगवान् वल, ये मोतियोंके हार और ये दूध देनेवाली गौएँ भी माणिक्येश्वरके समीप मोक्षदायक गीताके छठे स्वयं ही ले जा।' इस तरह आज्ञा देकर रैकने राजाके अध्यायका जप करते हुए सुखसे रहने लगे। हंसका रूप मनमें भय उत्पन्न कर दिया। तब राजाने शापके भयसे धारण करके वरदान देनेके लिये आये हुए देवता भी महात्मा रैकके दोनों चरण पकड़ लिये और भक्तिपूर्वक विस्मित होकर स्वेच्छानुसार चले गये। जो मनुष्य सदा कहा-'ब्रह्मन् ! मुझपर प्रसन्न होइये। भगवन् ! आपमें इस एक ही अध्यायका जप करता है, वह भी भगवान् यह अद्भुत माहात्म्य कैसे आया? प्रसन्न होकर मुझे विष्णुके ही स्वरूपको प्राप्त होता है इसमें तनिक भी ठीक-ठीक बताइये।
सन्देह नहीं है।
. श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
भगवान् शिव कहते हैं-पार्वती ! अब मैं रखा है, उससे इन पुत्रोंको वश्चित करके स्वयं ही उसकी सातवें अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ, जिसे सुनकर रक्षा करूंगा।' एक दिन साँपकी योनिसे पीड़ित होकर कानोंमें अमृत-राशि भर जाती है। पाटलिपुत्र नामक एक पिताने स्वप्नमें अपने पुत्रोंके समक्ष आकर अपना दुर्गम नगर है, जिसका गोपुर (द्वार) बहुत ही ऊँचा है। मनोभाव बताया, तब उसके निरङ्कश पुत्रोंने सबेरे उठकर उस नगरमें शङ्ककर्ण नामक एक ब्राह्मण रहता था; उसने बड़े विस्मयके साथ एक-दूसरेसे स्वप्रकी बातें कहीं। वैश्य-वृत्तिका आश्रय लेकर बहुत धन कमाया, किन्तु न उनमेसे मझला पुत्र कुदाल हाथमें लिये घरसे निकला तो कभी पितरोका तर्पण किया और न देवताओंका पूजन और जहाँ उसके पिता सर्पयोनि धारण करके रहते थे, ही। वह धनोपार्जनमें तत्पर होकर राजाओंको ही भोज उस स्थानपर गया। यद्यपि उसे घनके स्थानका ठीकदिया करता था। एक समयकी बात है, उस ब्राह्मणने ठीक पता नहीं था तो भी उसने चिह्नोंसे उसका ठीक अपना चौथा विवाह करनेके लिये पुत्रों और वन्धुओंके निश्चय कर लिया और लोभबुद्धिसे वहाँ पहुँचकर बाँबीको साथ यात्रा की। मार्गमें आधी रातके समय जब वह सो खोदना आरम्भ किया। तब उस बाँबीसे बड़ा भयानक रहा था, एक सर्पने कहींसे आकर उसकी बाँहमें काट साँप प्रकट हुआ और बोला-ओ मूढ़ ! तू कौन है, लिया। उसके काटते ही ऐसी अवस्था हो गयी कि मणि, किसलिये आया है, क्यों बिल खोद रहा है, अथवा मन्त्र और ओषधि आदिसे भी उसके शरीरकी रक्षा किसने तुझे भेजा है? ये सारी बातें मेरे सामने बता।' असाध्य जान पड़ी। तत्पश्चात् कुछ ही क्षणोंमें उसके पुत्र बोला-मैं आपका पुत्र हूँ। मेरा नाम शिव प्राण-पखेरू उड़ गये। फिर बहुत समयके बाद वह प्रेत है। मैं रात्रिमें देखे हुए स्वप्रसे विस्मित होकर यहाँका सर्पयोनिमें उत्पन्न हुआ। उसका चित धनकी वासनामें सुवर्ण लेनेके कौतूहलसे आया हूँ। बैंधा था। उसने पूर्व वृत्तान्तको स्मरण करके सोचा- पुत्रकी यह लोकनिन्दित वाणी सुनकर वह साँप "मैंने जो घरके बाहर करोडोंकी संख्यामें अपना धन गाड़ हँसता हुआ उसस्वरसे इस प्रकार स्पष्ट वचन