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उत्तरखण्ड ]
. श्रीमद्भगवडीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य .
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द्वारा बोलने लगी हैं, उस समय मेरे मुखसे निकली हुई मेरा नाम पद्मावती हुआ और मैं पद्याकी प्यारी सखी हो सुगन्धको सूंघकर साठ हजार 8वरे स्वर्गलोकको प्राप्त हो गयी। एक दिन मैं विमानसे आकाशमें विचर रही थी। गये हैं। पक्षिराज ! जिस कारण मुझमें इतना वैभव- उस समय सुन्दर कमलोंसे सुशोभित इस रमणीय ऐसा प्रभाव आया है, उसे बतलाती हूँ सुनो! इस सरोवरपर मेरी दृष्टि पड़ी और इसमें उतरकर ज्यों ही मैंने जन्मसे पहले तीसरे जन्ममें मैं इस पृथ्वीपर एक जलक्रीड़ा आरम्भ की, त्यों ही दुर्वासा मुनि आ धमके। ब्राह्मणकी कन्याके रूपमें उत्पन्न हुई थी। उस समय मेरा उन्होंने वस्त्रहीन अवस्थामें मुझे देख लिया। उनके भयसे नाम सरोजवदना था। मैं गुरुजनोंकी सेवा करती हुई सदा मैंने स्वयं ही यह कमलिनीका रूप धारण कर लिया। मेरे एकमात्र पातिव्रत्यके पालनमें तत्पर रहती थी। एक दोनों पैर दो कमल हुए। दोनों हाथ भी दो कमल हो गये दिनकी बात है, मैं एक मैनाको पढ़ा रही थी। इससे और शेष अङ्गोंके साथ मेरा मुख भी एक कमल हुआ। पतिसेवामें कुछ विलम्ब हो गया। इससे पतिदेवता इस प्रकार मैं पाँच कमलोंसे युक्त हुई। मुनिवर दुर्वासाने कुपित हो गये और उन्होंने शाप दिया-'पापिनी ! तू मुझे देखा। उनके नेत्र क्रोधाग्रिसे जल रहे थे। वे मैना हो जा।' मरनेके बाद यद्यपि मैं मैना ही हुई, तथापि बोले-'पापिनी ! तू इसी रूपमें सौ वर्षातक पड़ी रह ।' पातिव्रत्यके प्रसादसे मुनियोंके ही घरमें मुझे आश्रय यह शाप देकर वे क्षणभरमें अन्तर्धान हो गये। कमलिनी मिला। किसी मुनिकन्याने मेरा पालन-पोषण किया। मैं होनेपर भी विभूति-योगाध्यायके माहात्म्यसे मेरी वाणी जिनके घरमें थी, वे ब्राह्मण प्रतिदिन प्रातःकाल लुप्त नहीं हुई है। मुझे लांघनेमात्रके अपराधसे तुम विभूतियोग नामसे प्रसिद्ध गीताके दसवें अध्यायका पाठ पृथ्वीपर गिरे हो। पक्षिराज ! यहाँ खड़े हुए तुम्हारे सामने करते थे और मैं उस पापहारी अध्यायको सुना करती ही आज मेरे शापकी निवृत्ति हो रही है, क्योंकि आज सौ थी। विहङ्गम | काल आनेपर मैं मैनाका शरीर छोड़कर वर्ष पूरे हो गये। मेरे द्वारा गाये जाते हुए उस उत्तम दशम अध्यायके माहात्म्यसे स्वर्गलोकमें अप्सरा हुई। अध्यायको तुम भी सुन लो। उसके श्रवणमात्रसे तुम भी
आज ही मुक्त हो जाओगे। -
यो कहकर पधिनीने स्पष्ट एवं सुन्दर वाणीमें दसवें अध्यायका पाठ किया और वह मुक्त हो गयी। उसे सुननेके बाद उसीके दिये हुए इस उत्तम कमलको लाकर मैंने आपको अर्पण किया है।
इतनी कथा सुनाकर उस पक्षीने अपना शरीर त्याग दिया। यह एक अद्भुत-सी घटना हुई। वही पक्षी अब दसवें अध्यायके प्रभावसे ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुआ है। जन्मसे ही अभ्यास होनेके कारण शैशवावस्थासे ही इसके मुखसे सदा गीताके दसवें अध्यायका उच्चारण हुआ करता है। दसवें अध्यायके अर्थ-चिन्तनका यह परिणाम हुआ है कि यह सब भूतोंमें स्थित शङ्खचक्रधारी भगवान् विष्णुका सदा ही दर्शन करता रहता है। इसकी स्रेहपूर्ण दृष्टि जब कभी किसी देहधारीके शरीरपर पड़ जाती है, तो वह चाहे शराबी और ब्रह्महत्यारा ही क्यों न हो, मुक्त हो जाता है। तथा