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उत्तरखण्ड ]
. श्रीमद्भगवदीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्य .
ग्रामपाल (मुखिये) से उनकी भेंट हो गयी। ग्रामपालने क्या प्रभाव है, इस बातको तुम्हीं जानते हो। इस समय कहा-'मुनिश्रेष्ठ ! तुम सब प्रकारसे दीर्घायु जान पड़ते मेरे पुत्रका एक मित्र आया था, किन्तु मैं उसे पहचान न हो। सौभाग्यशाली तथा पुण्यवान् पुरुषोंमें तुम सबसे सका। वह मेरे पुत्रको बहुत ही प्रिय था; किन्तु अन्य पवित्र हो। तुम्हारे भीतर कोई लोकोत्तर प्रभाव विद्यमान राहगीरोंके साथ उसे भी मैंने उसी धर्मशालामें भेज है। तुम्हारे साथी कहाँ गये? और कैसे इस भवनसे दिया। मेरे पुत्रने जब सुना कि मेरा मित्र भी उसमें प्रवेश बाहर हुए? इसका पता लगाओ। मैं तुम्हारे सामने कर गया है, तब वह उसे वहाँसे ले आनेके लिये गया। इतना ही कहता हूँ कि तुम्हारे-जैसा तपस्वी मुझे दूसरा परन्तु राक्षसने उसे भी खा लिया। आज सबेरे मैंने बहुत कोई नहीं दिखायी देता। विप्रवर ! तुम्हें किस दुःखी होकर उस पिशाचसे पूछा-'ओ दुष्टात्मन् ! तूने महामन्त्रका ज्ञान है ? किस विद्याका आश्रय लेते हो रातमें मेरे पुत्रको भी खा लिया। तुम्हारे पेटमें पड़ा हुआ तथा किस देवताकी दयासे तुममें अलौकिक शक्ति आ मेरा पुत्र जिससे जीवित हो सके, ऐसा कोई उपाय यदि गयी है? भगवन् ! कृपा करके इस गाँव में रहो ! मैं हो तो बता। तुम्हारी सब सेवा-शुश्रूषा करूंगा।'
राक्षसने कहा-ग्रामपाल ! धर्मशालाके भीतर यो कहकर ग्रामपालने मुनीश्वर सुनन्दको अपने घुसे हुए तुम्हारे पुत्रको न जाननेके कारण मैने भक्षण किया गाँवमें ठहरा लिया। वह दिन-रात बड़ी भक्तिसे उनकी है। अन्य पथिकोंके साथ तुम्हारा पुत्र भी अनजानमें ही सेवा-टहल करने लगा। जब सात-आठ दिन बीत गये, मेरा ग्रास बन गया है। वह मेरे उदरमें जिस प्रकार जीवित तब एक दिन प्रातःकाल आकर वह बहुत दुःखी हो और रक्षित रह सकता है, वह उपाय स्वर्य विधाताने ही महात्माके सामने रोने लगा और बोला-'हाय ! आज कर दिया है। जो ब्राह्मण सदा गीताके ग्यारहवें अध्यायका रातमें राक्षसने मुझ भाग्यहीनके बेटेको चबा लिया है। पाठ करता हो, उसके प्रभावसे मेरी मुक्ति होगी और मरे मेरा पुत्र बड़ा ही गुणवान् और भक्तिमान् था।' हुओंको पुनः जीवन प्राप्त होगा। यहाँ कोई ब्राह्मण रहते हैं, ग्रामपालके इस प्रकार कहनेपर योगी सुनन्दने जिनको मैंने एक दिन धर्मशालेसे बाहर कर दिया था। वे पूछा-'कहाँ है वह राक्षस? और किस प्रकार उसने निरन्तर गीताके ग्यारहवें अध्यायका जप किया करते है। तुम्हारे पुत्रका भक्षण किया है?'
इस अध्यायके मन्त्रसे सात बार अभिमन्त्रित करके यदि प्रामपाल बोला-ब्रह्मन् ! इस नगरमें एक बड़ा वे मेरे ऊपर जलका छींटा दें तो निस्सन्देह मेरा शापसे भयङ्कर नरभक्षी राक्षस रहता है। वह प्रतिदिन आकर उद्धार हो जायगा। इस नगरके मनुष्योंको खा लिया करता था। तब एक इस प्रकार उस राक्षसका सन्देश पाकर मैं तुम्हारे दिन समस्त नगरवासियोंने मिलकर उससे प्रार्थना की- निकट आया हूँ। 'राक्षस ! तुम हम सब लोगोंकी रक्षा करो। हम तुम्हारे ब्राह्मणने पूछा-प्रामपाल ! जो रातमें सोये लिये भोजनकी व्यवस्था किये देते हैं। यहाँ बाहरके जो हुए मनुष्योंको खाता है, वह प्राणी किस पापसे राक्षस पथिक रातमें आकर नींद लेने लगें, उनको खा जाना।' हुआ है? इस प्रकार नागरिक मनुष्योंने गाँवके (मुझ) मुखिया- ग्रामपाल बोला-ब्रह्मन् ! पहले इस गाँवमें द्वारा इस धर्मशालामें भेजे हुए पथिकोंको ही राक्षसका कोई किसान ब्राह्मण रहता था। एक दिन वह अगहनीके आहार निश्चित किया। अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये ही खेतको क्यारियोंकी रक्षा करने लगा था । वहाँसे थोड़ी उन्हें ऐसा करना पड़ा । तुम भी अन्य राहगीरोंके साथ इस ही दूरपर एक बहुत बड़ा गिद्ध किसी राहीको मारकर खा घरमें आकर सोये थे; किन्तु राक्षसने उन सबोंको तो खा रहा था। उसी समय एक तपस्वी कहींसे आ निकले, जो लिया, केवल तुम्हे छोड़ दिया है। द्विजोत्तम ! तुममें ऐसा उस राहीको बचानेके लिये दूरसे ही दया दिखाते आ रहे