________________
• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ।
[संक्षिप्त पयपुराण
.
.
आनन्दविभोर रहते थे। देवशर्माने उन नित्यसन्तुष्ट तो व्याघ्र भी द्वेष छोड़कर चुपचाप खड़ा हो गया। उसे तपस्वीको शुद्धभावसे प्रणाम किया और पूछा- इस अवस्थामें देखकर बकरी बोली-'व्याघ्र ! तुम्हें तो 'महात्मन् ! मुझे शान्तिमयी स्थिति कैसे प्राप्त होगी?' अभीष्ट भोजन प्राप्त हुआ है। मेरे शरीरसे मांस तब उन आत्मज्ञानी संतने देवशर्माको सौपुर प्रामके निकालकर प्रेमपूर्वक खाओ न । तुम इतनी देरसे खड़े निवासी मित्रवान्का, जो बकरियोंका चरवाहा था, क्यों हो? तुम्हारे मनमें मुझे खानेका विचार क्यों नहीं हो परिचय दिया और कहा 'वही तुम्हें उपदेश देगा। रहा है?'
यह सुनकर देवशर्माने महात्माके चरणोंकी वन्दना व्याघ्र बोला-बकरी ! इस स्थानपर आते ही की और समृद्धिशाली सौपुर ग्राममें पहुंचकर उसके मेरे मनसे द्वेषका भाव निकल गया। भूख-प्यास भी उत्तरभागमें एक विशाल वन देखा। उसी वनमें नदीके मिट गयी। इसलिये पास आनेपर भी अब मैं तुझे खाना किनारे एक शिलापर मित्रवान् बैठा था। उसके नेत्र नहीं चाहता। आनन्दातिरेकसे निश्चल हो रहे थे-वह अपलक दृष्टिसे व्याघ्रके यों कहनेपर बकरी बोली-'न जाने मैं देख रहा था। वह स्थान आपसका स्वाभाविक वैर कैसे निर्भय हो गयी हूँ। इसमें क्या कारण हो सकता छोड़कर एकत्रित हुए परस्पर-विरोधी जन्तुओंसे घिरा है? यदि तुम जानते हो तो बताओ।' यह सुनकर था। वहाँ उद्यानमें मन्द-मन्द वायु चल रही थी। मृगोंके व्याघने कहा- मैं भी नहीं जानता। चलो, सामने खड़े झुंड शान्तभावसे बैठे थे और मित्रवान् दयासे भरी हुई हुए इन महापुरुषसे पूछे।' ऐसा निश्चय करके वे दोनों आनन्दमयी मनोहारिणी दृष्टि से पृथ्वीपर मानो अमृत वहाँसे चल दिये। उन दोनोंके स्वभावमें यह विचित्र छिड़क रहा था। इस रूपमें उसे देखकर देवशर्माका मन परिवर्तन देखकर मैं बहुत विस्मयमें पड़ा था। इतनेमें ही प्रसन्न हो गया। वे उत्सुक होकर बड़ी विनयके साथ उन्होंने मुझीसे आकर प्रश्न किया। वहाँ वृक्षकी शाखापर मित्रवान्के पास गये। मित्रवान्ने भी अपने मस्तकको एक वानरराज था। उन दोनोंके साथ मैंने भी वानरराजसे किञ्चित् नवाकर देवशर्माका सत्कार किया। तदनन्तर पूछा । विप्रवर ! मेरे पूछनेपर वानरराजने आदरपूर्वक विद्वान् देवशर्मा अनन्य चित्तसे मित्रवान्के समीप गये कहा-'अजापाल ! सुनो, इस विषयमें मैं तुम्हें प्राचीन
और जब उसके ध्यानका समय समाप्त हो गया, उस वृत्तान्त सुनाता हूँ। यह सामने वनके भीतर जो बहुत समय उन्होंने अपने मनकी बात पूछी-'महाभाग ! मैं बड़ा मन्दिर है, उसकी ओर देखो। इसमें ब्रह्माजीका आत्माका ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। मेरे इस मनोरथकी स्थापित किया हुआ एक शिवलिङ्ग है। पूर्वकालमें यहाँ पूर्तिके लिये मुझे किसी ऐसे उपायका उपदेश कीजिये, सुकर्मा नामक एक बुद्धिमान् महात्मा रहते थे, जो जिसके द्वारा सिद्धि प्राप्त हो चुकी हो।'
तपस्याम संलग्न होकर इस मन्दिरमें उपासना करते थे। देवशर्माकी बात सुनकर मित्रवान्ने एक क्षणतक वे वनमेंसे फूलोंका संग्रह कर लाते और नदीके जलसे कुछ विचार किया। उसके बाद इस प्रकार कहा- पूजनीय भगवान् शङ्करको स्नान कराकर उन्हींसे उनकी 'विद्वन् ! एक समयको बात है, मैं वनके भीतर पूजा किया करते थे। इस प्रकार आराधनाका कार्य करते बकरियोंकी रक्षा कर रहा था। इतनेमे ही एक भयङ्कर हुए सुकर्मा यहाँ निवास करते थे। बहुत समयके बाद व्याघ्रपर, मेरी दृष्टि पड़ी, जो मानो सबको ग्रस लेना, उनके समीप किसी अतिथिका आगमन हुआ। सुकर्माने चाहता था। मैं मृत्युसे डरता था, इसलिये व्याघ्रको आते भोजनके लिये फल लाकर अतिथिको अर्पण किया और देख बकरियोंके झंडको आगे करके वहाँसे भाग चला; कहा---'विद्वन् ! मैं केवल तत्त्वज्ञानकी इच्छासे भगवान् किन्तु एक बकरी तुरंत ही सारा भय छोड़कर नदीके शङ्करकी आराधना करता हूँ। आज इस आराधनाका किनारे उस व्याघ्रके पास बेरोक-टोक चली मयी। फिर फल परिपक्क होकर मुझे मिल गया; क्योंकि इस समय