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उत्तरखण्ड ]
.श्रीमद्भगवदीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य . .................................................................. .. ................. आप-जैसे महापुरुषने मुझपर अनुग्रह किया है। अभ्यास करने लगे। तदनन्तर दीर्घकालके पचात्
सुकर्माके ये मधुर वचन सुनकर तपस्याके धनी अन्तःकरण शुद्ध होकर उन्हें आत्मज्ञानकी प्राप्ति हुई। महात्मा अतिथिको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने एक फिर वे जहाँ-जहाँ गये, वहाँ-वहाँका तपोवन शान्त हो शिलाखण्डपर गीताका दूसरा अध्याय लिख दिया और गया। उनमें शीत-उष्ण और राग-द्वेष आदिकी बाधाएँ ब्राह्मणको उसके पाठ एवं अभ्यासके लिये आज्ञा देते दूर हो गयीं। इतना ही नहीं, उन स्थानोंमें भूख-प्यासका हुए कहा-'ब्रह्मन् ! इससे तुम्हारा आत्मशान-सम्बन्धी कष्ट भी जाता रहा तथा भयका सर्वथा अभाव हो गया।
REA यह सब द्वितीय अध्यायका जप करनेवाले सुकर्मा
ब्राह्मणकी तपस्याका ही प्रभाव समझो।
मित्रवान् कहता है-वानरराजके यों कहनेपर मैं प्रसन्नतापूर्वक बकरी और व्याघ्रके साथ उस मन्दिरकी
ओर गया। वहाँ जाकर शिलाखण्डपर लिखे हुए गीताके द्वितीय अध्यायको मैंने देखा और पढ़ा । उसीकी आवृत्ति करनेसे मैंने तपस्याका पार पा लिया है, अतः भद्रपुरुष ! तुम भी सदा द्वितीय अध्यायकी ही आवृत्ति किया करो। ऐसा करनेपर मुक्ति तुमसे दूर नहीं रहेगी।
श्रीभगवान् कहते हैं-प्रिये ! मित्रवान्के इस प्रकार आदेश देनेपर देवशनि उसका पूजन किया और उसे प्रणाम करके पुरन्दरपुरकी राह ली। वहाँ किसी देवालयमें पूर्वोक्त आत्मज्ञानी महात्माको पाकर उन्होंने यह सारा वृत्तान्त निवेदन किया और सबसे पहले उन्हींसे द्वितीय अध्यायको पढ़ा। उनसे उपदेश पाकर शुद्ध
अन्त:करणवाले देवशर्मा प्रतिदिन बड़ी श्रद्धाके साथ मनोरथ अपने-आप सफल हो जायगा।' यों कहकर वे द्वितीय अध्यायका पाठ करने लगे। तबसे उन्होंने बुद्धिमान् तपस्वी सुकमकि सामने ही उनके देखते-देखते अनवद्य (प्रशंसाके योग्य) परमपदको प्राप्त कर लिया। अन्तर्धान हो गये। सुकर्मा विस्मित होकर उनके लक्ष्मी ! यह द्वितीय अध्यायका उपाख्यान कहा गया। आदेशके अनुसार निरन्तर गीताके द्वितीय अध्यायका अब तृतीय अध्यायका माहात्म्य बतलाऊँगा।
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श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्य
श्रीभगवान् कहते है-प्रिये ! जनस्थानमें एक करता था। इसी प्रकार उसका समय बीतता था। धन जड नामक ब्राह्मण था, जो कौशिक-वंशमे उत्पन्न हुआ नष्ट हो जानेपर वह व्यापारके लिये बहुत दूर उत्तर था। उसने अपना जातीय धर्म छोड़कर बनियेकी वृत्तिमें दिशामें चला गया। वहाँसे धन कमाकर घरकी ओर मन लगाया। उसे परायी स्त्रियोंके साथ व्यभिचार लौटा। बहुत दूरतकका रास्ता उसने तै कर लिया था। करनेका व्यसन पड़ गया था। वह सदा जूआ खेलता, एक दिन सूर्यास्त हो जानेपर जब दसों दिशाओंमें शराब पीता और शिकार खेलकर जीवोंकी हिंसा किया अन्धकार फैल गया, तब एक वृक्षके नीचे उसे लुटेरोंने